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________________ सुश्रद्धा के द्वार तक पहुँचने के लिए दस सुरुचियां | ३७ (७) विस्तार सम्यक्त्व - बारह अंगशास्त्रों, चौदह पूर्वी या अंगबाह्य शास्त्रों को विस्तार से सुनकर अथवा प्रमाण-नय निक्षेपादिपूर्वक विस्तृत रूप से सुनकर जो तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे विस्तार सम्यक्त्व कहते हैं । (८) अर्थ सम्यक्त्व - अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट शास्त्रों के पढ़े बिना अथवा गुरु एवं शास्त्र का उपदेश सुने बिना, अकस्मात् उत्कापात, आदि किसी घटना, (अर्थ) को देखकर या किसो अर्थ (घटना) से संसार की क्षणभंगुर दशा से उदासीन होकर दृढ़ श्रद्धान करना अर्थ सम्यक्त्व है । (e) अवगाढ़ सम्यक्त्व - द्वादश अंगशास्त्र, अंगबाह्य, प्रकीर्णक आदि आगमों को पूर्णतः जानने-सुनने से श्रद्धान में जो अवगाढ़ता (दृढ़ता ) आती है, अथवा इनका पूर्णतः या देशतः अवगाहन करने पर जो श्रद्धान ढ़ होता है, वह अवगाढ़ सम्यक्त्व है । अथवा आचारांग आदि द्वादशांगी पर जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है, वे भी अवगाढ़रुचि सम्यक्त्व से सम्पन्न कहलाते हैं । (१०) परमावगाढ़ - सम्यक्त्र - केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी या मनःपर्यंवज्ञानी मुनिवर से जीवादि पदार्थों को जानकर अथवा उनसे अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनकर, अथवा केवलज्ञानी के अतिशययुक्त प्रभाव को देखकर अपनी शुद्ध आत्मा तथा उसके उत्थान-पतन के कारणभूत तत्त्वों के विषय में जो प्रगाढ़ श्रद्धान होता है, अथवा तत्त्वभूत पदार्थों तथा शुद्धआत्मा के प्रति स्वयं विश्वास या श्रद्धान हो जाए, आत्मानुभूति हो जाए वहाँ परमावगाढ़ सम्यक्त्व समझना चाहिए | तत्त्वार्थ सूत्र राजवार्तिक में दस प्रकार के दर्शनार्य के सन्दर्भ में सम्यक्त्व के ये ही (पूर्वोक्त) दस भेद दशविध रुचियों के रूप में बताये गये हैं। यथा ➖➖ · दर्शनार्या दशधा - आज्ञा-मार्गोपदेश- सूत्र - बोज-संक्षेप - विस्तारार्थअवगाढ़-परमावगाढ़रुचि भेदात् । अर्थात् - आज्ञारुचि, मार्गरुचि, उपदेशरुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, संक्षेपरुचि, विस्ताररुचि, अर्थरुचि, अवगाढ़रुवि और परमावगाढ़रुचि के भेद से दर्शनार्य दस प्रकार के हैं । जो भी हो, सम्यक्त्व के ये पूर्वोक्त दस भेद भी रुचिरूप ही हैं, जिस मुमुक्ष की जिस प्रकार की सुरुचि होती है, उसी सुरुचि के माध्यम से वह देव, गुरु, धर्म पर सुश्रद्धा तक, अथवा जीवादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा तक पहुँचता है । सम्यक् श्रद्धान या सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अन्तरंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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