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३४ | सद्धा परम दुल्लहा
कारण रुचि या श्रद्धा हो जाना । अथवा 'दृष्टिवाद सहित बारह अंगशास्त्र एवं अन्य प्रकीर्णक आदि शास्त्र सिद्धांत अर्थ सहित पढ़कर रुचि - श्रद्धा करना या उनमें तन्मय हो जाना अभिगमरुचि है ।
अधिगम का अर्थ है - विशिष्ट परिज्ञान | शास्त्रों के विशिष्ट परिज्ञान के निमित्त से रुचि या श्रद्धा होना अधिगमरुचि है ।
(७) विस्ताररुचि - द्रव्यों के सभी भावों को प्रमाणों और नयों से विस्तारपूर्वक जानकर उन पर श्रद्धा या रुचि करना विस्ताररुचि है ।
(८) क्रियारुचि - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, पंचसमिति, त्रिगुप्ति आदि के आचारों (अनुष्ठानों या क्रियाओं) में भावपूर्वक रुचि होना या उनमें लीन हो जाना क्रियारुचि है ।
(e) संक्षेपरुचि - अधिक पठित - शिक्षित न होने पर भी जो संक्षिप्त बोध से ही समझकर शुद्ध रुचि - श्रद्धा रखता है, वह संक्षिप्तरुचि है । अथवा जो बहुश्रुत नहीं है, सिद्धांत ज्ञान में मन्द है, निर्ग्रन्थ प्रवचन में अकुशल है, साथ ही जो अन्यतैथिकों के मिथ्याप्रवचनों, एकान्तवादी मत-मतान्तरों या शास्त्रों - सिद्धान्तों से भी अनभिज्ञ है, किन्तु कदाग्रही या कुदृष्टिआग्रही न होने से जो अल्पबोध से जीवादि तत्वों पर रुचि या श्रद्धा रखता है, वह संक्षेपरुचि है ।
(१०) धर्म रुचि - वीतराग प्रतिपादित श्रुतधर्म और चारित्रधर्म में अथवा रत्नत्रयरूप धर्म में अथवा धर्मास्तिकाय आदि अस्तिकायों के गुण--स्वभावादिरूप धर्म में जो रुचि - श्रद्धा या विश्वास रखता है, उन्हें यथार्थ मानता है, वह धर्मरुचि है ।
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दशविध रुचिरूपश्रद्धान- सरागसम्यग्दर्शन
स्थानांग सूत्र के मतानुसार पूर्वोक्त दशविध रुचिरूप सम्यग्दर्शन, (सम्यक् श्रद्धा) सरागसम्यग्दर्शन है। चूंकि 'रुचि' एक प्रकार की इच्छा है और इच्छा राग के बिना हो नहीं सकती । इसलिए दशविध रुचिरूप सम्यक्श्रद्धा सरागसम्यग्दर्शन के अन्तर्गत मानी गई है । वीतराग पुरुषों में रुचि या इच्छा नहीं होतो, इसलिए उनके वीतरागसम्यग्दर्शन को रुचि • रूप नहीं बताया गया है । रुचिरूप तत्त्वार्थश्रद्धा उन्हीं जीवों के होती है, जिनका मोहनीय कर्म उपशांत या क्षीण नहीं हुआ है । यही कारण है, इन
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