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________________ सुश्रद्धा के द्वार तक पहुंचने के लिए दस सुरुचियाँ | ३३ अथवा वीतराग सर्वज्ञ आप्त तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट या दृष्ट तत्त्वभूत पदार्थों (भावों) तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से निर्दिष्ट पदार्थों के विषय में यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं, इस प्रकार की स्वतःस्फूर्तश्रद्धा को भी निसर्गरुचि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के हृदय में सत्तत्त्वों के प्रति सहज स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा या भावना निसर्गरुचि है। (२) उपदेशरुचि-वीतराग तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित या छद्मस्थ वीतराग-शिष्यों-निग्रंथ सद्गुरुओं आदि द्वारा कथित उपदेश से जीवादि तत्वों पर श्रद्धान करना उपदेशरुचि है। (३) आज्ञारुचि-जिनके राग, द्वष, मोह और अज्ञान आदि विकार दूर हो गये हैं, ऐसे सर्वज्ञ आप्त पुरुषों की (वचन रूप) आज्ञा में रुचि रखना-उसी में तत्पर रहना आज्ञा रुचि है । अथवा जिनके राग, द्वेष, कषाय आदि विकार मन्द हो गये हों, मिथ्यात्व नष्ट हो गया हो, उन आचार्य, उपाध्याय आदि की आज्ञा मात्र पर श्रद्धा रखकर, हठाग्रह छोड़कर जीवादि पदार्थ वैसे ही हैं, इस प्रकार (माषतुषादि की तरह) स्वीकार करना भी आज्ञारुचि कहलाती है। (४) श्रुतरुचि (सूत्ररुचि)-जो अंगप्रविष्ट (द्वादशांगी) एवं अंगबाह्य श्र त (शास्त्र या सूत्र) का अध्ययन-मनन-चिन्तन करता है, शास्त्रों में कथित तत्त्वों और तथ्यों का गहराई से तात्पर्य और रहस्यार्थ ढंढता है, शास्त्रों में एकाग्रचित्त होकर अवगाहन करता है और शास्त्र-स्वाध्याय में तन्मय होकर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तथा क्रमशः जीवादि तत्वों पर श्रद्धा कर लेता है, उसे श्रु तरुचि या सूत्ररुचि कहते हैं । (५) बीजरुचि-जिस प्रकार एक बीज बोने से उससे सैकड़ों बीजों की प्राप्ति हो जाती है, अथवा पानी को सतह पर तेल की एक बूंद डालने से वह बहुत दूर तक फैल जाती है, उसी प्रकार जहां एक ही पद, पदार्थ या दृष्टांत से स्वतः स्वतः ही अनेक पदों, हेतुओं, पदार्थों या दृष्टांतों की स्फुरणा हो जाय और क्रमशः प्रतिबुद्ध होकर उनमें रुचि या श्रद्धा हो जाय, वहाँ बीजरुचि समझना चाहिए। अथवा एक तत्व के बोध से समस्त तत्त्वों का विस्तृत बोध हो जाना बीजरुचि सम्यक्त्व है। (६) अभिगम (अधिगम) रुचि-अभिगम रुचि का अर्थ है-आचारांग आदि श्रु तज्ञान का अर्थ सहित अधिगत-ज्ञात हो जाना और उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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