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३२ / सद्धा परम दुल्लहा
एकमात्र शुद्ध आत्मा-परमात्मा को पाने का हो, जिनकी एकमात्र यही प्यास हो कि हमें परमात्म पद-मोक्षपद के सिवाय और कुछ नहीं चाहिए वे ही रुचियां इस क्षेत्र में उपादेय है । दशविध सम्यक् रुचियां
यही कारण है 'धवला' आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में (सम्यक दृष्टि श्रद्धा, प्रत्यय (निश्चय) आदि शब्दों को 'रुचि' के पर्यायवाची बताये गये हैं। अतः सम्यक् रुचि ऐसी सघन आध्यात्मिक प्यास का नाम है, जो परमात्मपद या परमपद (मोक्ष) को पाकर ही बुझे। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में निम्नोक्त क्रम से सम्यक् रुचियों का निरूपण किया है
"निसग्गुवएसरुई आणारुई सुत्त-बीइरुइमेव ।
अभिगम वित्थाररुई, किरिया-संखेव धम्मरुई। अर्थात्-सम्यग्दर्शन को प्राप्त कराने वाली दस रुचियाँ हैं
(१) निसर्ग रुचि, (२) उपदेश रुचि, (३) आज्ञा रुचि, (४) सूत्र रुचि या श्रुत रुचि, (५) बीज रुचि, (६) अभिगम रुचि, (७) विस्तार रुचि, (८) क्रिया रुचि, (९) संक्षेप रुचि और (१०) धर्मरुचि ।।
दस रुचियों का स्वरूप और विश्लेषण अब हम क्रमशः इन दस रुचियों का स्वरूप आगम के अनुसार बता रहे हैं
(१) निसर्ग रुचि-स्वाभाविक रूप से तत्त्वाभिलाषारूपी रुचि का नाम निसर्ग रुचि है । आशय यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने पर गुरु आदि किसी दूसरे के उपदेश के बिना, जातिस्मरणज्ञान, प्रातिभ (स्वप्रतिभाजनित) ज्ञान आदि से या अपनी बुद्धि अथवा सहसन्मति-अपनी स्फुरणा से, स्वतः उत्पन्न हुए यथार्थबोध से, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष आदि या देव, गुरु, धर्म, शास्त्र आदि तत्त्वभूत पदार्थों को जानने-मानने की जो सस्यक् रुचि होती है, उसे निसर्ग रुचि कहते हैं ।
१ (क) उत्तराध्ययन. २८/१६-२६,
(ख) स्थानांग० स्था. १० सू. ७५१, (ग) प्रवचनसारोद्धार द्वार ६३ ।
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