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0--0 सुश्रद्धा के द्वार तक पहुंचने के लिए दस सुरुचियाँ
विभिन्न रुचियां क्यों ?
___ आध्यात्मिक जीवन में सम्यक् श्रद्धा का सर्वोपरि स्थान है। क्योंकि आत्मा और इसके विकास तथा शुद्धि से सम्बन्धित जितनी बातें हैं, वे अव्यक्त हैं, अदृश्य हैं, चर्मचक्षुओं से वे दृग्गोचर नहीं हैं, कुछ मानों में वे छद्मस्थ (अल्पज्ञ) के लिए अतीन्द्रिय हैं । अतः उन सभी अव्यक्त एवं अदृश्य, किन्तु श्रद्धय तत्वों के प्रति मुमुक्षु को सम्यश्रद्धा रखना आवश्यक है।
विश्व में मानव जाति प्रायः स्वतन्त्रताप्रिय है। सम्यश्रद्धा के प्रासाद तक विभिन्न कोटि के मानव विभिन्न सम्यक्रुरुचियों के माध्यम से पहुँचते हैं। सबका लक्ष्य तो एक ही होता है, सम्यकश्रद्धा को जीवन में चरितार्थ करना । परन्तु उनकी गति-प्रगति विभिन्न रुचियों की पगडण्डी से होती है। महिम्नस्तोत्र में इसी तथ्य की ओर संकेत किया गया है
_ "रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजु-कुटिलनाना-पथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥"
अर्थात्-जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ टेढ़े मेढ़े या सीधे मार्गों को पकड़ कर अन्त में एक समुद्र में गिरती हैं उसी प्रकार रुचियों की विचि. त्रता-विभिन्नता के कारण टेढ़े-मेढ़े या सोधे मार्गों को पकड़ कर चलने वाले मनुष्यों का एक मात्र तू ही गम्य-प्राप्य है ।
यहां आध्यात्मिक क्षेत्र में भी सम्यक् श्रद्धा की मंजिल तक पहुँचने के लिए जैन शास्त्रों में दस प्रकार की सम्यक् रुचियाँ बताई गई हैं। उनमें से जिस मुमुक्षु जीव को जिस प्रकार की सुरुचि होती है, उसी रुचि को
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