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२८ | सद्धा परम दुल्लहा
मरुदेवी माता ने हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे दूर से ही भगवान् ऋषभदेव का समवसरण देखा, उनकी सेवा में इन्द्रों और देवी-देवों की उपस्थिति देखी, इनके विलोकन से सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ,मगर हुआ तो अपनी उपादान शक्ति से ही। अगर उपादान शक्ति प्रबल न होती तो इन सब कारणों के रहते भी उन्हें सम्यग्दर्शन न होता। क्योंकि इन पर ऊहापोह या तत्व-चिन्तन तो आत्मा अपने आत्म-परिणाम-रूप अन्तरंग पुरुषार्थ से करती है । मूल वस्तु तो आत्मा की उपादान शक्ति की तैयारी है। कोई व्यक्ति गुरु का उपदेश सूने या शास्त्र स्वाध्याय भी करे,किन्तु अपने हृदय में उसे धारण न करे उसका वास्तविक अर्थ न सोचे-समझे तो उसे सम्यग्दर्शन कैसे हो जाएगा?
दूसरा अधिगमज सम्यग्दर्शन है, जो पर संयोग या बाह्य निमित्त से तत्वार्थ-श्रद्धान होता है। फिर वह बाह्य निमित्त चाहे गुरु आदि के उपदेश, प्रेरणा या मार्गदर्शन हो अथवा शास्त्र स्वाध्याय आदि हो, चह अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है ।वाचकवर्य उमास्वाति ने अधिगम शब्द के समानार्थक शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है- "अधिगम, अभिगम, आगम, निमित्त, श्रवण, शिक्षा तथा उपदेश, ये सब समानार्थक शब्द हैं ।"
प्रश्न होता है- अधिगम का अर्थ ज्ञान होता है । तब क्या निसर्गज म्यग्सदर्शन बिना ज्ञान के ही हो जाता है ? इसका समाधान यह है, ज्ञान के बिना पदार्थों का श्रद्धान तो दोनों ही प्रकार के सम्यग्दर्शनों में नहीं हो सकता। परन्तु निसर्गज में बाह्य उपदेश के बिना ही ज्ञान व श्रद्धान होता है, जबकि अधिगमज में बाह्य-उपदेशपूर्वक ज्ञान व श्रद्धान होता है। यही दोनों में अन्तर है।
सम्यग्दर्शन चाहे निसर्गज हो या अधिगमज दोनों की उपलब्धि का महत्वपूर्ण अन्तरंग कारण आत्म-शक्ति का एवं आत्म-गुणों का भान एवं निश्चय ही है। सम्यग्दर्शन या सम्यकश्रद्धान की ज्योति और क्या है ? 'निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध आत्म तत्व की ज्योति के दर्शन करना है।
जिसे आत्मतत्व की ज्योति प्राप्त हो गई, समझ लो, उसे सम्यग्
१ बिना परोपदेशेन सम्यक्त्वग्रहणलक्षणे ।
तत्वबोधो निसर्गः स्यात् तत्कृतो.धिगमजश्च यः। २ "अधिगम अभिगम आगमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् ।
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