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________________ सुश्रद्धा की उपलब्धि का व्याकरण | २७ वास्तव में देखा जाए तो गुरु आदि के उपदेश, शास्त्र स्वाध्याय या किसी मार्गदर्शक की प्रेरणा आदि बाह्य निमित्तों की अपेक्षा के बिना ही स्वयं आत्मा की विशुद्ध परिणतिरूप उपादान शक्ति से जब अनन्तानुबन्धी ( कषायचतुष्क) और दर्शनमोहनीय (त्रिक) कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हो जाता है, तब अन्तर में सम्यग्दर्शन का प्रकाश जगमगाने लगता है । इसमें बाहर का कोई भी निमित्त सहकारो नहीं बनता । अनन्तानुबन्धी कषाय तथा दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करने वाला कोई बाह्य निमित्त नहीं होता, स्वयं आत्मा ही होता है । कर्मों का आवरण स्वतः नहीं टूटता, आत्मा के अन्तर् के पुरुषार्थ से आत्मा की उपादान शक्ति से ही टूटता है । अतः नैसर्गिक सम्यग्दर्शन में आत्मा को आन्तरिक पुरुषार्थ जगाने के लिए किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती । जब भी आन्तरिक पुरुषार्थ का वेग तीव्र होता है, तब आत्मा मिथ्यात्व कर्मों के बन्धनों को तोड़कर या शिथिल करके स्वयं उससे विमुक्त हो जाता है । निसर्गजसम्यग्दर्शन में आत्मा हो साधक है, वही साध्य और साधन है । भूतार्थग्राही निश्चयदृष्टि से आत्मा जब स्वयं अपनी उपादान शक्ति से स्व-स्वरूप की उपलब्धि करता है, या स्व-स्वरूप को प्रकट करता है, तब निसर्गज सम्यग्दर्शन होता है । कुछ आचार्यों के मतानुसार निसर्गज सम्यग्दर्शन के अंतरंग कारणों में दर्शनमोहनीयादि सप्तक के क्षयादि के अतिरिक्त निकट भव्यता, अप्रतिबन्धक कारणाभाव, संज्ञी - पंचेन्द्रियत्व, ज्ञानावरणीयादि कर्महानि, शुद्ध परिणाम आदि भी समझ लेने चाहिए । मरुदेवी माता के जीवन को जब हम पढ़ते या सुनते हैं तो हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें अपने वर्तमान जीवन में किसी भी प्रकार का बाह्य निमित्त नहीं मिला। न तो उन्होंने कभी तीर्थंकर के उपदेश का श्रवण किया और न ही किसी शास्त्र का स्वाध्याय किया तथा न किसी प्रकार की साधना ही की थी। कहते हैं कि मरुदेवी माता का जीव अनादिकाल से निगोद में रहा, इसलिए पूर्व जन्मों में भी उन्हें कभी उपदेश आदि का निमित्त नहीं मिला। इस जन्म में उन्हें हाथी के होदे पर बैठे-बैठे ही सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और मुक्ति की उपलब्धि हो गई । इस पर से स्पष्ट प्रतीत होता है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन में किसी वाह्य निमित्त को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता । कहा जाता है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के वर्तमान क्षण से पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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