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________________ २६ | सद्धा परम दुल्लहा प्रश्न होता है- यदि निसर्गज सम्यग्दर्शन स्वभावतः-स्वतः होता है, तो क्या उसमें किसी भी कारण की अपेक्षा नहीं रहती ? __ इसका समाधान यह है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन का यह अभिप्राय नहीं है कि उसमें किसी भी कारण की अपेक्षा नहीं रहती। सम्यग्दर्शन, चाहे निसर्गज हो या अधिगमज दोनों में ही कारण की अपेक्षा तो रहती ही है। क्योंकि न्यायशास्त्र का यह अबाधित नियम है कि कारण के बिना किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। अतः निसर्गज सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी कोई न कोई कारण अवश्य है। कार्य की उत्पादक-सामग्री कारण कहलाती हैं। वह दो प्रकार का है-उपादान और निमित्त कारण। उपदान है-निज शक्तिरूप या निश्चयरूप कारण और निमित्त है-परसंयोग रूप या व्यवहाररूप कारण । सम्यग्दर्शनरूप कार्य को उत्पत्ति में उपादान कारण तो स्वयं आत्मा ही है। क्योंकि दर्शन आत्मा का निज गुण है। दर्शन की अशुद्धपर्याय को मिथ्यादर्शन और शुद्ध पर्याय को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ मिथ्यात्वरूप अशुद्ध पर्याय का व्यय (नाश) और सम्यक्त्वरूप शुद्ध पर्याय उत्पाद ही सम्यग्दर्शन है । यहाँ स्वभाव से सम्यग्दर्शन प्राप्ति का आशय है-अपने (आत्मा के) शुद्ध परिणामों से, आत्मा के शुद्ध अध्यवसायरूप पुरुषार्थ से स्वतः प्राप्त सम्यग्दर्शन । अगर स्वभावतः प्राप्त का अर्थ बिना ही किसी शुद्ध परिणाम के, या आत्मा के पुरुषार्थ के बिना स्वतः प्राप्त कहें या निसर्गज कहें, तब तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में अनन्तानुबन्धी चार कषाय तथा मोहनीयत्रिक, इन सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम की क्या आवश्यकता है ? परन्तु ऐसा कहना सिद्धान्तविरुद्ध है । सम्यग्दर्शन चाहे निसर्गज हो चाहे अधिगमज दोनों में अन्तरंग कारण समान है। दोनों में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोहनीयत्रिक, इन सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना ही पड़ता है । अर्थात् आत्मशुद्धि का जितना मार्ग अधिगमज सम्यग्दर्शन में तय करना पड़ता है, उतना ही मार्ग निसर्गज सम्यकदर्शन में भी तय करना पड़ता है। इस दृष्टि से निसर्गज और अधि. गमज सम्यग्दर्शन में विशेष अन्तर नहीं है। दोनों में अन्तरंग कारण समान है। उपादान की शक्ति दोनों ही जगह एक सी काम करती है। दोनों की स्वरूप शुद्धि-आध्यात्मिक शुद्धि का स्वरूप एक सा है। दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन बाह्य निमित्तनिरपेक्ष है और अधिगमज सम्यग्दर्शन बाह्य निमित्तसापेक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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