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सुश्रद्धा को उपलब्धि का व्याकरण | २५
(१) निसर्ग से और (२) अधिगम से । जो सम्यग्दर्शन दूसरे किसी व्यक्तितीर्थकर, गुरु, हितैषी या विद्वान अथवा शास्त्र आदि किसी के उपदेश के बिना स्वतः हो जाता है, उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो सम्यग्दर्शन तीर्थंकर गुरु, महात्मा, हितैषी या विद्वान अथवा लोकिक आप्तमाता-पिता आदि के उपदेश से प्राप्त होता है, वह अधिगमज कहलाता है। निसर्ग का अर्थ है-स्वभाव, परिणाम अथवा अपरोपदेश । जो किसी भी पर-संयोग, बाह्य निमित या गुरु आदि के उपदेश के बिना जीव को स्वाभा. विक रूप में, स्वतः ही प्रकट या उत्पन्न होता है, उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं । निसर्गज सम्यग्दर्शन में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती । स्वयं आत्मा में ही सहज भाव से जो स्वरूप की ज्योति उपलब्ध होती है, सत्य दृष्टि या सम्यक् श्रद्धा का आलोक जगमगाने लगता है। निसर्गज सम्यग्दर्शन का उपादान एवं निमित्त कारण आत्मा स्वयं ही होती
है।
जिस प्रकार सरिता के अथाह प्रवाह में बहता हआ पाषाण किसी विशिष्ट प्रयास के बिना स्वाभाविक रूप से गोल-मटोल एवं चिकना हो जाता है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए-संसाराभिमुख होकर भ्रमण करते हुए प्राणी के कदाचित् अनायास ही मोहकर्मावरण के अल्प हो जाने से, सहज भाव से, यथार्थता का बोध होने पर संसार को पीठ पीछे छोडकर यानी संसार की मोहमाया से निरपेक्ष-उदासीन होकर वह मोक्ष की ओर दौड़ लगाने लगता है। आत्मा की इसी स्थिति को निसर्गज सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
तत्वार्थ सूत्र के भाष्यकार आचार्य उमास्वाति निसर्गज सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की प्रक्रिया बताते हुए कहते हैं-ज्ञान-दर्शनोपयोग लक्षणरूप जीव को कर्मवश अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए स्वयंकृत कर्म के बन्ध, निकाचन, उदय और निर्जरा आदि के कारण नारक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव के रूप में अनेक जन्म ग्रहण करने पर पुण्य-पापरूप विविध फल भोगते हए ज्ञानदर्शनोपयोगरूप स्वभाव होने से उन परिणामों तथा अध्यवसाय-स्थानों को प्राप्त अनादि मिथ्यादृष्टि होते हए भी विलक्षण परिणाम-विशेष से ऐसा 'अपूर्वकरण' होता है, जिसके कारण किसी बाह्य निमित्त के बिना स्वतः जो सम्यग्दर्शन होता है, वही निसर्गज सम्यग्दर्शन है।
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