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-२४ ] सद्धा परम दुल्लहा 'नहीं होती, जिनसे उसका सच्चा और स्थायी कल्याण एवं विकास हो — सकता है । इसके विपरीत उसकी श्रद्धा, प्रतीति या रुचि विषय-भोग आदि • सांसारिक कार्यों में होती है जिनसे उसका अधःपतन होता है, विकास
रुकता है। यदि व्यक्ति अपनी साधना द्वारा आत्म-बोध पाकर उस अनन्त'कालीन मिथ्यात्व-आवरण को दूर कर सके तो आत्मा उस दिव्य आलोक अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाएगा, अर्थात्-वह आवृत दशा को छोड़कर अनावृत दशा में पहुँच जाएगा। मिथ्यात्व के आवरण को मिटाकर सम्यग्दर्शन के प्रकाश को अनावृत करना ही तो सम्यग्दर्शन की उपलब्धि है।
वैसे तो काललब्धि आदि का योग मिलने पर संसार-समुद्र का किनारा निकटवर्ती हो जाये तो अन्तर्मुहूर्त के लिए दर्शनमोहनीय का उपशम हो जाने से उपशम-सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है।
जिस प्रकार शराब या धतूरे के नशे से बेहोश मानव का जब नशा उतर जाता है, तब उसे होश होता है, उसी प्रकार दर्शनमोहनीय के उदय से जीव में एक विचित्र प्रकार का नशा छाया रहता है । इसी के कारण उसे हर समय बुद्धिभ्रम बना रहता है। अनेक शास्त्र एवं दर्शनों का विद्वान् होने पर भी उसकी बुद्धि में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय बना रहता है । दर्शनमोहनीय का उदय शान्त होते ही उसकी बौद्धिक भ्रान्ति मिट जाती है, उसकी दृष्टि, श्रद्धा और रुचि सम्यक् हो जाती है। ___कतिपय आचार्यों के मतानुसार शुद्ध आत्मा की अनुभूति (उपलब्धि या ज्ञप्ति) को रोकने वाला दर्शनमोहनीय कर्म के साथ-साथ अनन्तानुबन्धी कषायजनित चारित्रमोहनीयकर्म भी है । अतः दर्शनमोहनीयकर्म तथा अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के साथ मतिज्ञानावरणीयकर्म एवं वीर्यान्त रायकर्म के क्षयोपशम होने से शुद्ध आत्मा की उपलब्धि या अनुभूति होती है। अभिप्राय यह है कि निश्चय सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के लिए दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों तथा अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का क्षय, क्षयोपशम एवं उपशम होना अनिवार्य है।
इस तरह अन्तरंग एवं बाह्य कारणों के मिलने पर सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है।
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के दो स्रोत
तत्वार्थ सूत्र में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के दो स्रोत बताये गए हैं
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