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________________ सुश्रद्धा की उपलब्धि का व्याकरण | २३ प्रकाशरहित दीपक को एक बार प्रकाश-साधन का स्पर्श कराने मात्र से वह स्वयं ही प्रकाशित हो जाता है, इसी प्रकार इन्द्रिय-विषयभोगों में आसक्त, मोह एवं अज्ञान से आवृत, एवं स्व-शक्ति से अज्ञात आत्मा को देव, गुरु और शास्त्र उसके आत्मिक गुणों से आत्म-शक्तियों से स्पर्श भर कराने का प्रयत्न करते हैं । इसे ही भक्ति की भाषा में भगवत्कृपा से, गुरु के अनुग्रह से या शास्त्र के निमित्त से सम्यग्दर्शन उपलब्ध या प्राप्त हुआ कह सकते हैं । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि में बाह्य एवं अन्तरंग कारण यह कहा जा सकता है कि सम्पग्दर्शन की उपलब्धि के बाह्य निमित्त वीतरागदेव, निर्ग्रन्थ गुरु या सुशास्त्र आदि हैं। परन्तु अन्तरंग कारण तो स्वयं की ही आत्मा के गुणों और शक्तियों पर दृढ़ श्रद्धा-प्रतीति-रुचि है। ____ सम्यग्दर्शन कोई आत्म-बाह्य पदार्थ नहीं है, वह आत्मा का ही निजगुण है । उस पर मिथ्यात्व-मोहनीयकर्म का आवरण आ गया है। उसे हटाने भर की देर है, फिर तो सम्यग्दर्शन स्वतः उपलब्ध या आविर्भूत हो सकता है, निमित्त चाहे देव, गुरु, या शास्त्र बने या और कोई। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के बाह्य निमित्त तो अनेक हो सकते हैं। किसी को तीर्थंकर भगवान् की महिमा देखकर, किसी को देवों का ऐश्वर्य देखकर, किसी को जैन धर्म के सिद्धान्त सुनकर तो किसी को धर्म का सुफल जानकर सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। किसी को नारकों के घोर दुःखों की गाथा सुनकर तो किसी को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो जाने से सम्यग्श्रद्धा प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार के और भी अनेकों बाह्य कारण हो सकते हैं। परन्तु जब तक सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के अन्तरंग कारण का संयोग नहीं मिलता, तब तक बाह्य कारण मिलने पर भी वह प्रकट नहीं हो पाता। सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भाव होने में अन्तरंग कारण दर्शन-मोहनीयकर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम है। मोहनीयकर्म के भेदों में दर्शनमोहनीयकर्म ही मुख्य रूप से सम्यग्दर्शन गुण का घातक है । जब तक इस कर्म का उदय रहता है, तब तक सम्यग्दर्शन गुण प्रकट नहीं हो पाता। यद्यपि सम्यग्दर्शन आत्मा का निजीगुण है, किन्तु दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के कारण मिथ्यारूप हो रहा है। उसके मिथ्यारूप होने से जीव की श्रद्धा, प्रतीति और रुचि उन कार्यों में या उन कार्यों के उपदेशदाताओं के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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