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२२ / सद्धा परम दुल्लहा
प्रकाश के कारण दीखने-प्रतीत होने लगी। दीपक के प्रकाश ने किसी नई चीज को उत्पन्न किया है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता; किन्तु घर में पहले से ही जो चीजें मौजूद थीं, अन्धकार के कारण उनकी प्रतीति नहीं हो रही थी, दीपक के प्रकाश ने उन चीजों की प्रतीति करा दी, दिखा दीं।
इसी प्रकार गुरु, तीर्थंकर या सुशास्त्र व्यक्ति के जीवन में कोई नई वस्तु पैदा नहीं करते, न ही कोई वस्तु उसके अन्दर उड़ेलते हैं, बल्कि अज्ञान, मोह और मिथ्यात्व के अन्धकार के कारण उसकी आत्मा में निहित शक्तियों और गुणों की प्रतीति नहीं हो रही थी, उनका ज्ञान-भान नहीं हो रहा था, उनका भान या बोध करा दिया। तात्पर्य है कि जिज्ञासू आत्मार्थी या मुमुक्षु साधक के पास जो कुछ आध्यात्मिक निधि है, जो अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, और वीर्य (शक्ति) का खजाना है, जिसका ज्ञान या भान उसे नहीं था, उस अनन्त शक्ति या निधि का ज्ञान वे करा देते हैं। __मान लीजिए, एक दरिद्र भिखारी है। उसके घर की जमीन के नीचे असंख्य रत्नों का ढेर छिपा-दबा पड़ा है। किसी भूगर्भवेत्ता ने दया करके उसे उसकी दबी हई रत्न राशि का ज्ञान-भान करा दिया। दरिद्र को छिपी-दबी हुई रत्नराशि का निश्चय और दृढ़ विश्वास हो जाने पर क्या वह दीन-हीन भिखारी रह सकता है ? कदापि नहीं । फिर तो उसकी दरिद्रता सम्पन्नता में बदल जाएगी। वह अपने आपको भिखारी न मानकर रत्नराशि का स्वामी मानने लगेगा। यही बात सम्यगश्रद्धाविहीन साधक के विषय में समझिए । जब तक उसे अपनी आत्मा में निहित अनन्त शक्ति एवं गुण रत्नराशि का भान-ज्ञान नहीं है, तब तक वह दीन-हीन इन्द्रिय विषय सुखों का भिखारी बना रहता है, परन्तु ज्यों ही किसी कृपालु गुरु, तीर्थंकर या सुशास्त्र के द्वारा उसे निश्चित एवं प्रतीत हो जाता है, कि उस की आत्मा में अनन्त शक्ति एवं ज्ञान, दर्शन तथा सुख का अक्षय निधान दबा-छिपा हुआ है, इस प्रकार सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होते ही, वह दीनहीन एवं अभागा नहीं रह सकता। उसके मोह, अज्ञान एवं मिथ्यात्व का अन्धेरा भागते ही, उसे गुरु, शास्त्र या महापुरुषों के ज्ञान के प्रकाश में अपनी आत्म-शक्ति एवं आत्मगुणनिधि का पता लग जाता है ।
तीर्थंकर, गुरु या शास्त्र नया कुछ भी नहीं करते, वे इतना ही करते हैं कि स्वशक्ति से विस्मृत एवं अज्ञात आत्मा को उसकी अनन्त शक्ति एवं गुण निधि का भान, स्मरण, बोध या निश्चय करा देते हैं। जिस प्रकार
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