SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुश्रद्धा को उपलब्धि का व्याकरण ! २१ बोध, तथा उसके प्रति दृढ़ श्रद्धान एवं निश्चय हो जाता है, तभी समझना चाहिए कि उस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन या सम्यश्रद्धा की उपलब्धि हो चुकी है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि स्वतः या परतः ? अब प्रश्न होता है कि सम्यग्दर्शन या सम्यकश्रद्धा की ऐसी उपलब्धि, आविर्भाव या प्राप्ति व्यक्ति को स्वतः होतो है या परतः ? अर्थात्-किसी व्यक्ति को कोई महापुरुष, गुरु या शास्त्र सम्यग्दर्शन की उपलब्धि करा देता है या उस व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ से सम्यग्दर्शन को उपलब्धि होती जैन दर्शन इसका समाधान इस प्रकार करता है कि वस्तुतः गुरु, महापुरुष या शास्त्र किसो भो साधक में नई बात पैदा नहीं कर सकते हैं, इस दृष्टि से वे ऊपर से किसी व्यक्ति में सम्यग्दर्शन नहीं उड़ेल देते; किन्तु व्यक्ति की आत्मा के अन्दर जो शक्ति है, जो ज्ञान-दर्शनादि गुण हैं, उसकी स्मृति, प्रतीति या बोध करा देते हैं । जो शक्ति या जो गुण स्मृति से ओझल हो चुके हैं. जो उसे अज्ञात हैं, उसो का वे स्मरण या ज्ञान करा देते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी शक्तियों या आत्म-गुणों का भान मोह तथा अज्ञान के कारण नहीं है, अथवा मिथ्यात्व के कारण विपरीत भान है, उसे यथार्थ रूप में स्मरण या भान करा देना हो तोथंकर, गुरु या शास्त्र का काम है। परन्तु अगर मोहकर्मवश किसी व्यक्ति को जिज्ञासा, दृष्टि या रुचि अथवा श्रद्धा उन महान आत्माओं से या शास्त्रों से आत्म-स्वरूप को जानने-मानने की न हो, अथवा उन महापुरुषों, गुरुओं या सत् शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा के कारण वे जानना-मानना हो न चाहे तो उस व्यक्ति के लिए सम्यग्दर्शन की उपलब्धि स्वतः या परतः दोनों प्रकार से दुर्लभ है। घर में बहुत-सी चीजें पड़ी हैं। व्यक्ति बाहर से घूम-घामकर घर में प्रविष्ट होता है, परन्तु अंधेरे के कारण उन चीजों का पता नहीं लग रहा है । सभी चीजें हैं, पर अंधकार के कारण सारे परिवार को वे दिखाई नहीं देती, अदृश्य हैं, अज्ञात हैं । घर का मालिक ज्यों ही दीपक जलाता है, सारे घर में उजाला हो जाता है। अन्धकार उस घर से बिल्कुल भाग जाता है। प्रकाश के सद्भाव से अन्धकार ही नहीं भागा, बल्कि घर में बहुत-सी चीजें मौजूद होती हुई भी दोख नहीं पा रही थीं, वे भी दीपक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy