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________________ आस्तिक्य का तृतीय आधार : कर्मवाद' | २५६ कर्म क्षय होंगे, नये कर्म नहीं बंधेगे । इस प्रकार की सान्त्वनामयी शुभ प्रेरणा कर्मवाद से मिलती है। ___ दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि किसी भी विघ्न, संकट, विपत्ति, या दुःख के आ पड़ने पर साधारण मानव किंकर्तव्यविमूढ़ व्याकुल एवं भयभ्रान्त होकर प्रारम्भ किये हुए उत्तम कार्य को अथवा अपनी सुनिश्चित आचार-मर्यादा को छोड़ बैठता है। उसके पुषार्थ और साहस को निराशा, मढ़ता और भीति दबा देती है। उस समय बुद्धि को स्थिर एवं संतुलित करने वाला, साहस, आशा और स्फूर्ति की हवा भरने वाला, आत्म बल को दृढ़ करने वाला, उन्नति पथ पर आगे बढ़ने के लिए मन में अनुपम उत्साह का दीपक जलाने वाला, उपस्थित संकट, कष्ट आदि के मूल कारण (उपादान) पर चिन्तन कर निमित्तों पर दोषारोपण न करके द्वेष वैरभाव की परम्परा को वहीं रोक देने वाला तथा समभावपूर्वक कर्मफल भोग लेने की प्रेरणा करके संवर या निर्जरा को उपलब्धि कराने वाला अद्वितीय प्रेरणादाता गुरु कर्मवाद ही है । __कर्मवाद से लाखों करोड़ों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं, कष्टों और दुःखों का अनुभव भी कम हआ है। कर्मवाद का प्रत्येक सन्देश दुःखों की लपलपाती ज्वालाओं से दग्ध मानवों के घावों पर सांत्वना की मरहमपट्टी का काम करता है । कर्मवाद ही उनके अशान्त, व्याकुल और विपद्-ग्रस्त हृदयों में शान्ति, निराकुलता और विपद्-विजय की प्रेरणा भरता है । दुःख, निराशा और निरुत्साह से पूर्ण जीवन-नौका को कर्मवाद आशा और उत्साह का प्रकाशस्तम्भ दिखाकर पाप, आस्रव और अशुभ बन्ध की चट्टानों से टकराने से बचाता है । कर्मवाद कष्टपीड़ित मनुष्यों में वर्तमान में कष्ट-सहिष्णुता, तितिक्षा एवं सहन-क्षमता बढ़ाता है, और भविष्य में जीवन को कर्ममुक्त शुद्ध बनाने का सन्देश देता है । कर्मवाद मनुष्य को अपनी वर्तमान संकटापन्न परिस्थिति को बदलने के लिए कर्मों का क्षय करके आत्मशुद्धि करने की प्रेरणा देता है। साधारण अज्ञ मानव जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं, कष्टों, और विपत्तियों से जहाँ घबरा कर धर्म-कर्म को भूल बैठता है, वहाँ कर्मवादी अपने पूर्वकृत कर्म एवं वर्तमान में किये जाने वाले कर्मक्षयकारक धर्म या पुण्योपार्जन शुभ कर्म का चिन्तन करता है, वह घबराता, रोताचिल्लाता, या विलाप नहीं करता, न ही अपने संकट का दायित्व निमित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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