SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० | सद्धा परम दुल्लहा पर डाल कर उससे लड़ता-झगड़ता है । वह श्वानवृत्तिवश बाह्य कारणों को कदापि नहीं कोसता, बल्कि सिंहवृत्ति धारण करके अपने संकट के मूल कारण अशुभ कर्म को पकड़कर उससे जूझता है, तप, त्याग, संयम, नियम, समत्व आदि अपनाकर उस मूल कारण को नष्ट करता है । वह सोचता है कि वृक्ष के मूल कारण बीज होते हैं, उसी प्रकार इन कष्टों के बीज ये निमित्त नहीं, मेरा उपादान - मेरे पूर्वकृत कर्म ही हैं । दुःख प्राप्ति के ये बाह्य निमित्त तो वृक्ष के लिए मिट्टी, पानी, हवा, प्रकाश आदि बाह्य निमित्तों की तरह हैं । इस प्रकार कर्मवादी अपने कष्ट, संकट या दुःख के लिए दूसरों को दोषी न मानकर स्वयं को ही स्वयं के पूर्वकृत अशुभ कर्मों को ही दोषी मानता है, और उन्हें समभाव से भोगकर क्षय करता है । कर्मवादी की दृढ़ आस्था होती है कि यद्यपि हमारी बाह्य आन्तरंग शक्तियाँ कर्मों से अधिक आवृत हैं, तथापि अगर अपने दृढ़ आत्मबल एवं तप-संयम में पराक्रम द्वारा जैसे सिद्ध परमात्मा ने कर्मों के आवरण को सर्वथा दूर करके परम शुद्ध परमात्मपद को प्राप्त कर लिया उसी तरह कर्मक्षय के लिए तप-संयम में दृढ़ पराक्रम करें तो हम भी एक दिन कर्ममुक्त परमात्मा बन सकते हैं । पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय से कोई पारिवारिक, सामाजिक या आर्थिक संकट, रोग, विघ्न-बाधा या विपत्ति आने पर कर्मवादी अगर तपत्याग-प्रत्याख्यान, संयम-नियम आदि द्वारा पुरातन कर्मक्षय करने या अशुभ कर्मों के आगमन को रोकने का पुरुषार्थ करता है तो परिवार, समाज या उसके वर्ग समुदाय में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, उसकी शारीरिक-मानसिक दशा भी ठीक होती है । अशुभकर्म भी शुभ में परिणत होने पर उसकी आर्थिक स्थिति भी पुनः सुधर जाती है। उसका भाग्य भी प्रबल हो जाता है, दुर्भाग्य पलायन कर जाता है । यह है कर्मवाद की विविध दृष्टियों से उपयोगिता और कर्मवाद को मानने की अनिवार्यता । वर्तमान आस्था संकट के युग में कर्मवाद आस्थाबीज का पुनरारोपण करता है । कर्मवाद पर दृढ़ आस्था रखने वाला कर्म करते समय भी सावधान रहता है और आत्मा पर आए हुए कर्मों के आवरण को दूर करने के लिए अनिश पुरुषार्थ करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy