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२५८ | सद्धा परम दुल्लहा
कर्मवाद में विश्वास न करने वाला व्यक्ति संकट या विपत्ति के आने पर जब किसी निमित्त को दोषी ठहराता है, तब स्वाभाविक है कि उक्त निमित्त के मन में भी आक्रोश, आवेश और रोष पैदा होता है, परस्पर एक दूसरे के प्रति क्रोध, घृणा, द्वष और कलह के कारण वैर परम्परा बढ़ती जाती है। उस घोर कर्मबन्ध-परम्परा का फल जन्म-जमान्तर में भोगना पड़ता है। यही कारण है कि कर्मवादी निमित्त पर दोषारोपण करके वैरपरम्परा और घोर कमबन्ध की परम्परा नहीं बढ़ाता । वह उपादान (स्वयं) को ही उक्त संकट के लिए उत्तरदायी मानकर वहीं कर्मबन्ध-परम्परा की जड़ काट देता है, वैर-परम्परा को आगे बढ़ने ही नहीं देता। बल्कि कर्मवादी उन दुःखों, संकटों, समस्याओं या विपदाओं के समय उस संकटापन्न परिस्थिति से छुटकारा पाने या उस दुष्परिस्थिति को बदलने के लिए, किसी देवी-देव, अदृश्य शक्ति या ईश्वर आदि के सामने गिड़गिड़ाता नहीं, भीख भी नहीं मांगता; उसका वह दृढ़विश्वास होता है कि आत्मा किसी अदृश्य शक्ति या ईश्वर की इच्छा के हाथों की कठपुतली नहीं है । वह कर्म को करने में जैसे स्वतंत्र है, वैसे ही कर्म को काटने में भी स्वतंत्र है।
न ही उन्हें खुश करने के लिए चढ़ावा, मनौती, स्तुति, प्रशंसा आदि करके उनकी खुशामद करता है। हे ईश्वर ! मेरे कर्मों को काट दे, ऐसी अनुचित मांग भी उसकी नहीं होती। वह कर्मों को काटने के लिए स्वयं ही पुरुषार्थ करता है, स्वनिर्भर रहता है। पूर्वकृत अशुभ कर्मों को यथासम्भव शुभ में परिणत करने के लिए स्वयं ही पुरुषार्थ करता है । उसका यह दृढ़ विश्वास होता है वह स्वयं ही सत्पुरुषार्थ द्वारा कर्मों से मुक्त हो सकता है। आत्मा को जन्म-मरणरूप संसार चक्र में परिभ्रमण कराने के कारणभूत कर्मों से अगर सर्वथा छुटकारा पाना हो तो कर्मों को आत्मा से पृथक् करने का सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहिए ।
कर्मवादी प्रतिकूल परिस्थिति में ईश्वर, देवी, देव आदि पर, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर दोषारोपण न करके शान्ति और धैर्य से उसका सामना करता है, यथाशक्ति अहिंसक प्रतीकार या सात्विक ढंग से निवारणोपाय भी करता है, इस पर भी विपत्ति नहीं जाती तो समभाव से सहता है और यह चिन्तन करता है कि कर्मोदय के कारण केवल मेरे पर ही नहीं, बड़ेबड़े महापुरुषों पर विपत्तियां आई हैं, उन्होंने जैसे विना घबराए समभावपूर्वक कष्टों को सहन किया, वैसे मैं भी सहन कर लुतो मेरे भी पूर्वकृत
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