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आस्तिक्य का तृतीय आधार : कर्मवाद | २५७
है, वैसा ही, वह, तब करता-कराता है। इस दृष्टि से जीव न तो कर्म करने में स्वतंत्र है, न ही उसका फल भोगने में।
ईश्वरकर्तृत्ववादी पर जब कोई विपत्ति, संकट, दुःख, रोग, या अनिष्टसंयोग-इष्टवियोग का अवसर आ पड़ता है, तब वह अपने उपादान, स्वकृतकों को न देख-समझकर किसी निमित्त को या सर्वप्रथम ईश्वर को ही दोष देता है उसे ही कोसता है। जबकि जैनदर्शनसम्मत कर्मवादी उस संकटापन्न समय में किसी भी निमित्त को दोष न देकर शास्त्रीय भाषा में यह सोचता है--
जं जारिसं पुश्मकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराये । ____ "जैसा मैंने पहले कर्म किया था, वैसा ही फल मेरे सामने दुःख के रूप में आ गया है।"
आशय यह है कि कर्मवादी उस समय ईश्वर को या किसी भी निमित्त को नहीं कोसता । वह यह नहीं कहता कि ईश्वर ने मेरे पर अन्याय किया; मुझे क्यों ऐसा दण्ड दिया ? अथवा अमुक व्यक्ति ने मेरे साथ ऐसा किया, इसलिए मेरे पर ऐसा संकट आया। अमुक ने मेरे साथ शत्रुता की, मुझे हैरान किया । इत्यादि वाक्य कर्मवादी आस्तिक के नहीं होते।
किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति के उपस्थित होने पर कर्मवादी किसी भी निमित्त को उत्तरदायी न ठहरा कर, अपनी ही आत्मा को उसका उत्तरदायी ठहराता है। कर्मवाद पर विश्वास से व्यक्ति को ऐसा आश्वासन मिलता है कि जैसे भी मेरे पूर्वकर्म थे तदनुसार मुझे फल मिला है। कर्मों का ऋण तो देर-सबेर मुझे ही चुकाना है, क्योंकि मेरा ही किया हुआ यह कर्ज है। अगर मैं मन में ग्लानि न लाकर हंसते-हंसते समभावपूर्वक उन पूर्वकृत कर्मों का फल भोग लूँ, तो नये अशुभकर्मों का भी बंध नहीं होगा,
और पुराने किये हुए कर्मों का धीरे-धीरे क्षय (निर्जरा) भी हो जाएगा । कदाचित् निकाचित कर्मवन्ध होने के कारण अशुभकर्म परीषह-सहन, चारित्रपालन, तपस्या. समभाव, त्याग, संयम आदि से शुभ कर्मों के रूप में परिणत न हों तो भी समभावपूर्वक शान्ति और धैर्य से उन अशुभकर्मों का फल भोग लेने के बाद वे कर्म तो छूट ही जाएंगे।
१ ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्दे शेऽर्जुन ! तिष्ठति ।
भ्रामयत् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया । २ १।५।२।२२
- भगवद्र्ग ता
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