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आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद | २५१ जीव आधार हैं, शरीर उनका आधेय है, इसी प्रकार कर्म संसारी जीव का आधार है और संसारी जीव कर्म के आधेय हैं।
वैदिक परम्परा में 'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' अर्थात् --धर्म समग्र जगत् का आधार है, कहा गया है । उसका तात्पर्य यह है कि धर्म व्यावहारिक जगत् में दुर्गति में गिरते हुए आत्मा को धारण करके रखता है, जगत् की-समाज की सुव्यवस्था का आधार है, परन्तु आध्यात्मिक जगत् में वह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म सारे विश्व को संसार समुद्र से पार उतारने और मोक्ष को धारण कराने वाला मोक्ष सुख का आधार है।
लोक (जगत्) का कर्त त्व इस लोक (विश्व) का कर्ता-धर्ता-संसर्ता कौन है ? इस विषय में विभिन्न दार्शनिकों में पर्याप्त मतभेद हैं । प्रागैतिहासिक युग में भारत में मनुष्यों का एक वर्ग सूर्य, अग्नि, वायु (मरुत्), आकाश, विद्युत्, दिशा आदि शक्तिशाली प्राकृतिक तत्त्वों का उपासक होने से प्रकृति को ही देव मानता था, उसी के द्वारा विश्व को रचित या रक्षित मानता था। उपनिषदों में प्रजापति ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना मानी गयी है। इसके पश्चात् ईश्वरकर्तृत्ववाद का दौर चला, जिसके मतानुयायी मुख्यतया तीन दार्शनिक थेवेदान्ती, नैयायिक और वैशेषिक । ये सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता ईश्वर को मानते हैं। वे ईश्वर को जगत्कर्ता, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, नित्य, स्वाधीन और सर्वशक्तिमान मानते हैं । सांख्यमतवादी प्रकृति (प्रधान) को जगत्की मानते हैं।
उनका मुख्य तर्क यह है कि प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए। इस विशाल जगत् (लोक) का कोई न कोई कुशल, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् बुद्धिमान कर्ता है। और वह कर्ता देव, ब्रह्मा, स्वयम्भू, विष्णु, महेश्वर, ईश्वर या प्रकृति आदि अवश्य है। १ यो धरत्युत्तमे सुखे २ (क) सूत्रकृतांग श्र. १, अ. १, उ. ३ गा. ६४-६६ (ख) छान्दोग्य उपनिषद् खण्ड १२ से १८ अ. ५ (ग) वही खण्ड २, श्लो. ३ (घ) ऐतरेयोपनिषद् प्रथम खण्ड (ङ) मुण्डक उप. खण्ड १ श्लो. १ (च) प्रश्नोपनिषद् प्रश्न १ श्लो. ४६ (च) जन्माद्यस्ययतः । -ब्रह्मसूत्र ३ (क) मनुस्मृति अ. १ । (ख) कर्तास्तिकश्चिज्जगतः सचैकः - स्याद्वाद मंजरी (ग) कार्यायोजन-धन्यादेः ।
- न्यायसिद्धान्त मुक्तावली तत्त्वदीपिका (घ) यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.... ।
- गीता ४/७
रत्नकरण्डक श्रावकाचार
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