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२५० | सद्धा परम दुल्लहा
अस्तित्व को अनादि-अनन्त सिद्ध कर देता है, तब लोक की शाश्वतता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
भाव-लोक आचारांग नियुक्तिकार के अनुसार भावलोक कषाय हैं, काम भी भावलोक (संसार) है । संसार (लोक) में पुनः पुनः परिभ्रमण के मूल कषाय, कामभोग, स्वजन-परिजन, धन-धान्य, मकान आदि चेतन-अचेतन इष्ट पदार्थों के प्रति राग (आसक्ति) और अनिष्ट के प्रति द्वष, अथवा इष्ट वियोग-अनिष्ट संयोग के समय मन में डोष-संक्लेश, एव अनिष्ट वियोगइष्टसंयोग के समय राग, अहंकार, आसक्ति आदि भी लोक (संसार) परिवर्द्धन, संसार परिभ्रमण के कारण हैं। भावलोक का ज्ञान साधक को उस पर विचय (निर्वेद या अनुप्रेक्षात्मक चिन्तन) या विजय के लिए प्रेरणा देता है। लोक की संस्थिति
इस लोक (सृष्टि, विश्व या जगत्) की स्थिति के विषय में भी दार्शनिकों में काफी मतभेद हैं । वैष्णव लोग 'जगदाधारं विण्णुपदं' कहकर विष्णु के आधार पर जगत् को मानते हैं। पौराणिक कहते हैं-यह सृष्टि (पृथ्वी) गाय के सींग पर टिकी हुई है। कई इसे शेषनाग के फन पर टिकी हुई कहते हैं । बृहदारण्यक उपनिषद् में विश्व को क्रमशः जल, वायु, अन्तरिक्ष, गन्धर्वलोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक और ब्रह्मलोक के आधार पर अवस्थित माना गया है ।।
जैनधर्म की लोक-अवस्थिति की मान्यता का निरूपण भगवतीसूत्र में किया गया है । वहाँ गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने लोक की स्थिति आठ प्रकार से बतायी है। यथा-(१) सर्वप्रथम आकाश पर वायु टिकी हुई है, (२) वायु पर समुद्र, (३) समुद्र पर पृथ्वी, (४) पृथ्वी पर स-स्थावर जीव टिके हुए हैं। (५) जीव के आश्रित अजीव हैं, (६) सकर्म (कर्मबद्ध) जीव कर्म पर आश्रित है, (७) अजीव जीवों द्वारा संग्रहीत है और (८) जीव कर्म-संगृहीत हैं ।
स्पष्ट है कि विश्व के बाह्य आधार चार हैं-आकाश, वायु, जल और पृथ्वी तथा अन्तरंग आधार जीव और शुभाशुभ कर्म हैं। संसारी
१. बृहदारण्यक उपनिषद् ३/६/१ २. भगवती सूत्र १/६
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