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________________ आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद | २४६ याजन में ज्योतिष्क देवलोक है, जहाँ सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारामण्डल है। अधोलोक - मध्यलोक से नीचे का प्रदेश अधोलोक कहलाता है। इसमें सात नरक पृथ्वियाँ हैं। उनके नाम हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा। इन सातों में ऊपरऊपर की भूमियों से नीचे-नीचे की भूमियाँ उत्तरोत्तर अधिक लंबी-चौड़ी हैं। इन सातों नरक भूमियों में रहने वाले जीव 'नारक' कहलाते हैं। नीचेनीचे की नरकभूमियों के नारकों में कुरूपता, भयंकरता, बेडौलपन आदि विकृतियां बढ़ी हुई होती हैं। इन नरकभूमियों में प्रधानरूप से तीन प्रकार की वेदनाएँ नारकों को होती हैं-(१) परमाधार्मिक असुरों (नरकपालों) द्वारा दी जाने वाली, (२) क्षेत्रकृत वेदनाएँ-जैसे कि नरकभमियाँ अत्यन्त ठंडी, अथवा अत्यन्त गर्म, तथा खून और रस्सी से लथपथ, इत्यादि होती हैं और (३) नारक जीवों द्वारा परस्पर एक दूसरे को पहुँचाई जाने वाली, या मन ही मन संक्लेश पाने के कारण होने वाली वेदनाएँ। नारकों का जितना आयुष्य है, उसे पूरा करके ही वे उस शरीर से छुटकारा पा सकते हैं। संक्षेप में क्षेत्रलोक की दृष्टि से तीनों लोकों की ऐसी रचना है। जीव पुण्यों के उदय से स्वर्ग (पुण्य) लोक को, पापों के उदय से नरक (पाप) लोक को और पुण्य-पाप दोनों के मिश्र से मनुष्यलोक को प्राप्त करता है। इहलोक के अतिरिक्त परलोक (ऊर्ध्वलोक-अधोलोक) को मानने से पुनर्जन्म तथा कर्मों के फलस्वरूप चार गतियों और ८४ लक्ष जीव योनियों में परिभ्रमण करने के कारणों पर अनायास ही चिन्तन एवं अनुप्रेक्षण होता है, जिससे आत्म-विकास और आत्मधर्म के प्रति आस्था सुदृढ़ होती है। काललोक यह लोक (विश्व) द्रव्याथिकनय की दृष्टि से शाश्वत है, किन्तु पर्यायाथिकनय की दष्टि से यह परिवर्तनशील होने के कारण अशाश्वत भी है। यद्यपि षड़ द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन चारों में स्वाभाविक परिणमन होता रहता है, इसी कारण ये शाश्वत काल तक अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं। जब परिणामी-नित्यत्ववाद इन छहों द्रव्यों के १ नित्याऽशुभतर-लेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रियाः । परस्परोदीरित दुःखाः । संक्लिष्टाऽसुरोदीरित दुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्या: । -तत्त्वार्थ० ३/३-४-५ २ पुण्येन पुण्यलोकं नयन्ति, पापेन पापलोकं, उभाभ्यामेव मनुष्यलोकम् । -प्रश्नोपनिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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