________________
२४८ । सद्धा परम दुल्लहा लोक का आकार मृदंग जैसा है । मध्यलोक में वे कृश हैं, इस कारण उसका आकार बिना किनारी वाली झालर के समान है । नीचे की ओर (अधोलोक में) वे विस्तृत होते गए हैं। इसलिए उसका आकार औंधे शराव (सकोरे) जैसा है । यह लोकाकाश की ऊँचाई है । अलोक का कोई विभाग नहीं है । वह सर्वत्र मध्य में पोल वाले गोले के समान एकाकार है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्स्टीन ने लोक का व्यास १८०००००० प्रकाश वर्ष माना है।
ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक से ६०० योजन ऊपर ऊर्ध्वलोक कहलाता है। इसे देवलोक भी कहते हैं। देव चार प्रकार के होते हैं-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । ऊर्ध्वलोक में केवल वैमानिक देव रहते हैं । अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थसिद्ध है। इससे १२ योजन ऊपर सिद्ध शिला है। जो ४५ लाख योजन लम्बी और उतनी ही चौड़ी है। इसे लोकान्त भाग, लोकाग्र, ईषत्प्रागभारा एवं सीता कहते हैं। इसके पश्चात् लोक की सीमा समाप्त हो जाती है। लोकान्त भाग के ऊपरी कोस के छठे भाग में मुक्त सिद्ध आत्माओं का निवास है।
____मध्यलोक - इसे तिर्यक्लोक या मनुष्यलोक कहते हैं। यह १८०० योजन प्रमाण है। इस लोक के मध्य में जम्बूद्वीप है। उसे घेरे हए असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। इस विशाल क्षेत्र में ढाई द्वीपों में ही मनुष्यों और तियंचों का निवास है -- जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और अर्धपुष्करार्द्ध द्वीप। इन ढाई द्वीपों में कर्मभूमिक क्षेत्र १५ हैं और अकर्मभूमिक क्षेत्र ३० हैं। तथा समुद्र के मध्यवर्ती अन्तर्वीप ५६ हैं । इनमें भी मनुष्यों का निवास है।'
वर्तमान विज्ञान ने जितने भूखण्ड का अन्वेषण किया है, वह तो केवल कर्मभूमि के जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र का छोटा-सा ही भूभाग है। मध्यलोक तो अकर्मभूमिक और अन्तर्वीप के क्षेत्रों को मिलाने पर बहुत ही विशाल है। " मध्यलोकवर्ती जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु के निकट की समतल भूमि से ७६० योजन की ऊंचाई से लेकर ६०० योजन तक, अर्थात् कुल ११०
१ भगवती. सूत्र ७।१।२६० तथा ११।१०-११ २ प्रकाश की किरण प्रति संकण्ड १८६००० मील के हिसाब से चलकर १ वर्ष
में जितनी दूरी तय करती है उसे एक प्रकाश वर्ष कहते हैं। ३ उत्तरा. ३६१५६ से ६२ तक ४ तत्त्वार्थ० ३।३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org