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________________ २५२ | सद्धा परम दुल्लहा ये विशाल भूखण्ड पर्वत, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारे, समुद्र, इतने सब प्राणी, आदि का व्यवस्थित रूप से आयोजन और सर्जन करने वाला ईश्वर के सिवाय कौन हो सकता है ? जैनदर्शन परमात्मा (ईश्वर) को अवश्य मानता है, किन्तु उसे जगत् का कर्ता-धर्ता नहीं मानता है क्योंकि जगत् का निर्माता-कर्ता कोई भी ब्रह्मा, देव या ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं है। ईश्वर निरंजन-निराकार एवं अमूर्त है, वह जगत् जैसे मूर्त पदार्थ को नहीं बना सकता । यदि यह कहें कि जगत् की स्थिति बिगड़ती देखकर दयालू ईश्वर ने जगत् में अवतरित होकर सृष्टि की रचना की, तब प्रश्न होता है कि सृष्टि रचना किस उपादान से की? यदि उपादान के बिना ही स्वयं ने विश्व रचा । तब तो कई प्रश्न उपस्थित होते हैं--(१) उसे ईश्वररूप छोड़कर जन्म-मरणरूप संसार के प्रपंच में पड़ने की क्यों आवश्यकता पड़ी? (२) रागद्वेषमुक्त ईश्वर को पुनः राग-द्वषयुक्त बनाना, जगत् को विषम बनाना, चोर डाकू आदि पापियों से जगत् को भरना, सर्वशक्तिमान होते हुए भी चोरी, जारी, हत्या लूटपाट, भ्रष्टाचार आदि न रोक सकना ये सब आक्षेप ईश्वर पर आते हैं। इन प्रश्नों का कोई युक्तिसंगत उत्तर उनके पास नहीं है। अतः जैनदर्शन ने स्पष्ट कर दिया कि यह विश्व (लोक) किसी भी ईश्वर द्वारा रचित नहीं है। यह अनादिकाल से स्वभाव से ही इसी रूप में चला आ रहा है। पुद्गलादि द्रव्यों का परिणमन स्वतः होता रहता है । सभी जीवों को अपनेअपने कर्मानुसार स्वयं फल मिलता है, जो उन्हें भोगना ही पड़ता है। यदि ईश्वर को जीव-अजीवरूप जगत् का कर्ता माना जाएगा तो जीवों का, खासकर मनुष्यों का स्वयं कर्तृत्व नहीं रहेगा। ईश्वर ही सबसे शुभाशुभ कमे करायेगा, वही कर्मफल भुगवाएगा फिर क्या जरूरत है किसी को महाव्रत-अणुव्रत पालन करने की ? तप, जप, इन्द्रियनिग्रह, संयम आदि करने की क्या आवश्यकता है ? ईश्वर को खुश कर देने से ही काम हो जाएगा। अतः लोकवाद से सम्बन्धित इस प्रश्न का यथार्थ निश्चय भी आस्तिक्य का प्रधान अंग है। १. (क) सृष्टि-कर्त त्वमीमांसा (ख) कर्ताखण्डनलावणी, (ग) स्याद्वादमंजरी (घ) गीता ५/१४ - न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल-संयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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