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________________ आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद | २४५ उत्पत्ति में प्रवर्तमान द्रव्यों का अस्तित्व जितने काल तक रहता है, उस अवधि तक काल का निमित्त या प्रेरकरूप में रहना, वर्तना है। स्वाभाविक रूप से परिणमन का सूचक भी काल होता है। गति आदि क्रियाओं में जो समय लगता है, उसमें भी काल निमित्त या सहायक बनता है । परत्व-अपरत्व का अर्थ है पहले होना, पीछे होना या पुराना-नया, अथवा ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्व आदि विचार । ये भी काल के बिना नहीं ज्ञात हो सकते । द्रव्य सेकालद्रव्य अनन्त है, क्योंकि वह अनन्त जीवों और पुद्गलों पर बरतता है। क्षेत्र से-काल ढाई द्वीप प्रमाण है। क्योंकि मनुष्य लोक में ही सूर्य-चन्द्र का भ्रमण होता है । इनके भ्रमण के आधार पर ही दुनिया में घड़ी, घंटा, दिनरात, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदि का एवं तदनुसार जीवों के आयुष्य का परिमाण नियत होता है। भूत, भविष्य और वर्तमान भो काल के रूप हैं। स्थानांग सूत्र में चार प्रकार के काल बताए गये हैं--(१) परिमाणकाल (पदार्थ-मापक काल), (२) यथायुर्निवृत्ति काल (जीवन की विविध अवस्थाएँ) (३) मरणकाल और (४) अद्धाकाल (चन्द्र-सूर्य की गति से घंटा, दिन-रात आदि समय) यह व्यावहारिक काल है। समय से लेकर पुद्गल परावर्तन तक के जितने भी विभाग हैं, वे सभी अद्धाकाल के हैं। निश्चय काल तो जीव-अजीव की पर्याय है। वह लोकव्यापी है, अविभाज्य है । काल से-वह अनादि-अनन्त है, भूत-भविष्य-वर्तमान काल की अपेक्षा से। भाव से-काल वर्तमान क्षण है। नवीन-प्रचीन शीघ्र-विलम्ब, ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि व्यवहार भी काल के कारण होता है। बीज से लेकर वृक्षोत्पत्ति तक तथा बालकयुवक-वृद्ध आदि परिणमन भी काल से ही संभव है। काल की सहायता से ही हलन-चलन, व्यापार-धन्धा आदि सब संभव है । काल की सहायता.न हो तो कोई भी क्रिया नहीं हो सकती। _____जीवास्तिकाय -- द्रव्य से-जीव द्रव्य अनन्त है। क्षेत्र से -चतुर्दश रज्जू-परिमाण-लोकवर्ती है । काल से-अनादि-अनन्त है । भाव से -अरूपी है, तथा गुण से --जीवद्रव्य चेतना या उपयोग लक्षण वाला है । अर्थात् - जिसको पदार्थों का दर्शन (सामान्य बोध) और ज्ञान (विशेष बोध) हो, साथ १ स्थानांग, स्थान ४। २ भगवती सूत्र ११।११।१२८ ३. उपयोगो लक्षणम् । --तत्त्वार्थसूत्र अ. २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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