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२४६ | सद्धा परम दुल्लहा
ही सुख-दुःख का अनुभव हो, वह जीवद्रव्य है । विश्व में मूर्त एवं जढ़ पदार्थ भी हैं, और अमूर्त एवं चेतन भी हैं। ये क्रमशः पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय हैं। इनकी सामूहिक क्रिया-प्रक्रिया तथा उपकारकता समग्र लोक है। जीवास्तिकाय के ४ ध्र व गुण हैं-(१) अनन्तज्ञान, (२) अनन्तदर्शन, (३) अनन्तसुख और (४) अनन्तवीर्य । जीवद्रव्य चेतन स्वरूप है, ज्ञाता-द्रष्टा है। कर्ता-भोक्ता है । स्वशरीर प्रमाण है। यद्यपि यह मूर्त नहीं है, तथापि कर्मों से संयुक्त है।
परस्पर उपकार करना जीवों का कार्य है । जैसे---एक जीव हिताहित के उपदेश द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है। गुरु शिष्य को सदुपदेश देकर शिष्य पर और शिष्य अनुक्ल विनयादि प्रवृत्ति द्वारा गुरु का उपकार करता है।
पुद्गलास्तिकाय-जो द्रव्य पूरण और गलन अर्थात्-इकट्ठा और अलग हो, जुड़े और टूटे-फटे, मिले और बिखरे, बने और बिगड़े उसे पुद्गल कहते हैं । यह पुद्गल का स्वभाव है । पुद्गल का लक्षण है-जो वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला हो । अर्थात्-जो मूर्त द्रव्य हो, वह पुद्गल और उसके प्रदेशों का समूह पुद्गलास्तिकाय है । पुद्गलास्तिकाय का स्थूल लक्षण है --शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप (धूप) और वर्णोदिचार । द्रव्य से - पुद्गलास्तिकाय अनन्त है, क्षेत्र से-लोक-परिमाण है, काल से-अनादि-अनन्त है, भाव से-रूपी और गुण से-पूरण, गलनसड़न, विध्वंसनरूप होना पुद्गलों का स्वभाव है । यद्यपि परमाणु पुद्गल अत्यधिक सूक्ष्म होते है । इन्द्रियगोचर नहीं होता तथापि वह अमूर्त (अरूपी) नहीं, मूर्त (रूपी) हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष से वह जाना-देखा जाता है। पुद्गलास्तिकाय के ४ ध्र व गुण हैं-(१) रूपी, (२) अचेतन, (३) सक्रिय और (४) संयोग-वियोग का स्वभाव । पुद्गलास्तिकाय के उपकार हैंशरीर, वाणी, मन, उच्छ्वास (प्राण), और निःश्वास (अपान) तथा सुख
१ आगमसार ग्रन्थ से। २ जोवो हवइ चेदा उवओगविसेसिदो पह कत्ता।
भोत्ता य देहमत्तो, णहि मुत्तो कम्मसंजुतो।। -पंचास्तिकाय ३ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।
-- तत्त्वार्थ सूत्र ४. आगमसार ग्रन्थ से ।
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