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- २४४ | सद्धा परम दुल्लहा
संयम क्रियाओं में धर्मास्तिकाय उपकारक है । धर्मास्तिकाय के ४ ध्रुव गुण हैं - अरूपी, अचेतन, अक्रिय और गतिसहायलक्षण 1
अधर्मास्तिकाय - द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की दृष्टि से यह धर्मास्तिकाय के ही समान है । गुण से-जैसे पथिक को वृक्ष की छाया सहायक होती है, वैसे ही अधर्मास्तिकाय द्रव्य जीवों और पुद्गलों की स्थितिक्रिया में सहायक होता है । स्थिति भी विश्व व्यवस्था के लिए अनिवार्य है । स्थिति का हेतु या उपकारक द्रव्य 'अधर्मास्तिकाय' है । भगवती सूत्र के अनुसार - अधर्मास्तिकाय न होता तो सव प्रकार के स्थिर भाव कैसे होते ? एक जगह स्थिर होना, बैठना, सोना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, शरीर को निश्चल करना, आँखों का अनिमेष ( अपलक ) होना, इत्यादि जीवों की स्थिर होने की क्रियाएँ अधर्मास्तिकाय से होती हैं ।' स्थिति में सहायता करना इसका लक्षण है । इसके ४ ध्र ुवगुण हैं - अरूपी, अचेतन, अक्रिय और स्थिति- सहायक लक्षण !
आकाशास्तिकाय - द्रव्य से- आकाश एक अनन्त प्रदेशात्मक और अखण्डद्रव्य है । क्षेत्र से - लोकालोकप्रमाण है । लोक में धर्म-अधर्म द्रव्य . के तुल्य उसके असंख्य प्रदेश हैं, अलोक में अनन्त प्रदेश हैं । काल की अपेक्षा - आकाश अनादि-अनन्त है। भाव की दृष्टि से - अरूपी अमूर्त है । गुण की अपेक्षा - उसका स्वभाव अवकाश देने का है। जैसे दूध में शक्कर को अवमिल जाता है । आधार या अवकाश भी विश्व की स्थिति के लिये जरूरी है | आधार अथवा अवकाश का हेतु या उपकारक द्रव्य आकाशास्तिकाय है । विश्व के सभी पदार्थ आकाश के आधार पर टिके हुए हैं। प्रत्येक द्रव्य को अवकाश देने में आकाश भाजनरूप है। क्योंकि आकाश द्रव्य न होता तो ये जीव कहाँ होते ? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ बरतता ? पुद्गल का आधार कहाँ होता ? यह विश्व निराधार ही होता । आकाश के चार ध्रुवगुण हैं - अरूपी, अचेतन, अक्रिय और अवगाहन- गुण ।
काल द्रव्य- - परिवर्तन के बिना विश्व का कार्य या व्यवहार चल ही नहीं सकता । उसका हेतु या उपकारक द्रव्य 'काल' है । वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व - अपरत्व, ये काल के उपकार हैं। अपने-अपने पर्याय की
भगवती १३।४।४८१ २ वही, १३ | ४ |४८ १
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वर्तना परिणाम क्रिया- परत्वापरत्वे च कालस्य ।
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-- तत्त्वार्थ ० ५।२२
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