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आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद | २४३
(स्वस्थ ) कर सके, या मानवकृत नियंत्रण के अभाव में स्वेच्छा से इधर-उधर जा सके । कोई भी यंत्र अपना आहार स्वयं ग्रहण नहीं कर सकता और न ही उस आहार (तेल, डीजल, पेट्रोल आदि) से अपनी काया बढ़ा सकता है क्योंकि यंत्र में चेतना शक्ति नहीं होती, उसका नियामक चेतनावान् प्राणी होता है । यही चेतन (जीव ) और अचेतन ( जड़ अजीव ) में अन्तर है । ये ही विशेषताएँ जीवद्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करती हैं ।
द्रव्यों का स्वरूप निर्णय स्वरूप निर्णय में प्रत्येक द्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की दृष्टि से विचार किया जाता है ।
धर्मास्तिकाय - द्रव्य से - संख्या की दृष्टि से धर्मास्तिकाय असंख्य देशों का पूरा एक अविभाज्य पिण्डरूप द्रव्य है । वह जीव आदि के समान पृथक्-पृथक् रूप से नहीं रहता, किन्तु अखण्ड द्रव्यरूप से अवस्थित है । क्षेत्र से - अवगाहन की दृष्टि से वह समग्र लोकव्यापी है । काल से - काल की अपेक्षा से वह अनादि - अनन्त है, शाश्वत है, सदैव है, रहेगा और था । 1 वह न तो कभी उत्पन्न हुआ और न ही नष्ट होगा । भाव से - अवस्था की दृष्टि से वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित, अरूपी, अमूर्त और निराकार है । 2 गुण से - गुण के अन्तर्गत स्वभाव, उपयोगिता और उपकारकता का विचार किया जाता है । धर्मास्तिकाय का स्वभाव है - स्वयं यति करने वाले जीवों और पुद्गलों की गति क्रिया में अपेक्षित सहायता करना । जैसे- पानी में तैरने वाली मछली को तैरने में सहायता करने वाला पानी है, वैसे ही जड़ पदार्थों (पुद्गलों) और जीवों को गति करने में सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय है । उपयोगिता के दो रूप होते हैं- जागतिक और आध्यात्मिक । गति विश्वव्यवस्था के लिए अनिवार्य है । गति का हेतु या उपकारक द्रव्य 'धर्मास्तिकाय' है । भगवती सूत्र में बताया गया है कि धर्मास्तिकाय न होता तो गमनागमन कैसे होता ? शब्दों की तरंगें कैसे फैलती ? आँखें कैसे खुलतीं ? मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ (क्रियाएँ) कैसे होती ? यह विश्व अचल ही होता । आशय यह है कि विश्व के जितने भी चल भाव हैं, वे सब धर्मास्तिकाय की सहायता से ही होते हैं। संयमी पुरुष के लिए भी विहार, भिक्षा, उपदेश, प्रतिलेखनादि सभी
१ कालओ जात्र णिच्चे....अवणे अगंधे अरसे अफासे । - - भगवती २ पंचास्तिकाय ८३, ८६
३ (क) भगवतीसूत्र १३ / ४ / ४८१ ( ख ) आगमसार ग्रन्थ से ।
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सू० २/३-१०
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