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२४२ | सद्धा परम दुल्लहा
हैं । व्यवहारदृष्टि से उसे एक स्वतन्त्र पृथक् द्रव्य माना है और जीवाजीवात्मक भी । ' दिगम्बर परम्परा काल को अणुरूप मानती है । कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है । प्रति समय काल के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नामक अर्थ सदैव होते हैं, यही कालाणु के अस्तित्व का हेतु है । "
सांख्य, योग, वेदान्त आदि दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते । बौद्ध दर्शन काल को केवल प्रज्ञप्तिमात्र व्यवहार के लिए कल्पित मानता है । विज्ञान की दृष्टि में काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, पदार्थ के धर्ममात्र हैं ।
(५) पुद्गलास्तिकाय -- नैयायिक - वैशेषिक इसे भौतिक तत्त्व और वैज्ञानिक मेटर (Matter) और इनर्जी (Energy) कहते हैं । जैन दर्शन में पुद्गल का अर्थ मूर्त्त द्रव्य है । जीव, धर्म, अधर्म और आकाश, ये चारों द्रव्य अविभागी ( अखण्ड) हैं, जबकि पुद्गल अखण्ड द्रव्य नहीं है । संयोजित वियोजित होना पुद्गल को विशेषता है । इसका सबसे छोटा रूप एक परमाणु है, और सबसे बड़ा रूप अचित्त 'महास्कन्ध' है ।
(६) जीवास्तिकाय --- जीव (आत्मा) चेतना लक्षण वाला है। छह द्रव्यों में चेतना लक्षण वाला जीव के अतिरिक्त कोई भी अन्य द्रव्य नहीं है । छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य अजीव हैं, केवल एक जीवास्तिकाय जीव है । जीव और अजीव का अन्तर यह है कि ज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो सभी जीवों में अनावृत रहता है । यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव हो जाए । किन्तु ऐसा कभी होता नहीं ।
व्यावहारिक दृष्टि से जीव के लक्षण हैं-सजातीय जन्म, वृद्धि, सजातीय उत्पादन, क्षत-संरोहण और अनियमित तिर्यग्गति आदि, जो अजीव में नहीं पाए जाते। मशीन भले ही ओटोमैटिक हो, वह स्वयं को उत्पन्न नहीं कर सकती, ऐसे स्वयंचालित यंत्र न तो सजातीय यंत्र से स्वयं उत्पन्न होते हैं और न ही सजातीय यंत्र को पैदा कर सकते हैं । कोई भी यंत्र ऐसा नहीं, जो स्वयं की मरम्मत कर सके या स्वयं को स्वयं ठीक
१ (क) भगवती २५ / ४ / ७३४ (ख) उतरा० २८/८७, (ग) जीवाभिगम, (घ) प्रज्ञापना पद १/२
२ तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक अ० ५ / ३८-३९ सूत्र
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