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________________ आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद । २४१ है। आकाश एक अगतिशील (स्थिर) आधार है, उसमें पृथ्वी और अन्य आकाशीय पिण्ड रहे हुए हैं । आकाश असीम विस्तार वाला, स्वतन्त्र शाश्वत एक और अखण्ड तत्त्व है। विभिन्न पदार्थों द्वारा अवगाहित होने पर भी उसके गुणों में परिवर्तन नहीं होता। आकाश अमूर्त, सर्वव्यापी और अनन्त प्रदेशी है। वस्तुत अखण्ड तथा सभी स्थानों पर एक-से होने पर भी आकाश के दो विभाग किये गए हैं लोकाकाश और अलोकाकाश । आकाश के जिस खण्ड में धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है। और जिस खण्ड में ये न हों, वह अलोकाकाश है। आकाश द्रव्य के अस्तित्व को मानने का एक कारण यह भी है कि दो वस्तुओं, अथवा बिन्दुओं के बीच रहा हुआ अन्तर (Distance) आकाश के कारण ही हो सकता है । मोहन से सोहन नौ फीट दूर है, ऐसा कहने में आकाश निमित्त रूप है । यदि बीच में आकाश-अवकाश न हो तो उनके अन्तर को हम कह नहीं सकते । दिशाओं-विदिशाओं का ज्ञान आकाश से ही होता है । लोक के तीन विभाग-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक भी आकाश के आधार से किये गए हैं। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई-दूरी, निकटता आदि का व्यवहार आकाश द्वारा ही सम्भव है। कालद्रव्य -- (१) काल वास्तव में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, अपितु जीव और अजीव की पर्याय है। अर्थात्-जीवद्रव्य की पर्याय - परिणमन को तथा अजीवद्रव्य की पर्याय - परिणमन को ही उपचार से काल कहा जाता है। (२) दूसरा मत है -- जीव और पुद्गल जिस प्रकार स्वतन्त्र द्रव्य हैं, उसी प्रकार काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है । उसे जीव और अजीव की पर्याय प्रवाहरूप न मान कर पृथक् द्रव्य मानना चाहिए। द्वितीय मत का फलितार्थ यह है कि जिस प्रकार जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में सहायक रूप में क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है, वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्त कारण रूप काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना चाहिए। ये दोनों मत परस्पर सापेक्ष हैं । निश्चयदृष्टि से काल को जीव और अजीव का पर्याय रूप मानने से सभी कार्य एवं व्यवहार सम्पन्न हो जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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