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________________ २४० } सद्धा परम दुल्लहा अस्तित्व सिद्ध है, तो उसके प्रतिपक्षी अलोक का अस्तित्व भी अनुमानादि प्रमाणानुसार सिद्ध हो जाता है। जिसमें जीवादि सभी द्रव्य होते हैं, वह लोक है, और जहाँ ये सब नहीं है, केवल आकाश है, वह अलोक है। अलोक में जीव और पुद्गल नहीं होते, क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्मद्रव्य का अभाव है। इसलिए लोक और अलोक, दोनों के परिच्छेदक या विभाजक द्रव्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को मानना अनिवार्य है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन ने लोक के परिमित होने का कारण उक्त शक्ति या द्रव्य को बताया, जो गति में सहायक होता है, और लोक के बाहर नहीं जा सकता। सर्वप्रथम न्यूटन ने गतितत्त्व (Medium of motion) को माना। इसलिए भौतिक वैज्ञानिकों को ईथर (Ether) को गतिसहायक तत्व मानना पड़ा। उन्होंने विश्लेषण करके बताया कि ईथर आपारमाण्विक वस्तु है, सर्वत्र व्यापक है और वस्तु के गतिमान होने में सहायक है । बाद में जैनदर्शन के अनुसार गति और स्थिति में असाधारण रूप से सहायक तत्वों को क्रमशः धन ईश्वर (Positive Ether) और ऋण ईथर (Negative Ether) कहा जाने लगा। ___ अतः गति और स्थिति में निमित्त कारण और लोक-अलोक के विभाजन के हेतुभूत क्रमशः धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को माने बिना कोई चारा नहीं है। प्रत्येक कार्य में निमित्त और उपादान दो कारण मुख्य होते हैं। गति और स्थिति में उपादान कारण तो जीव और पुद्गल दोनों सिद्ध हैं, किन्तु निमित्त कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ही हैं, क्योंकि वे स्वयं गतिशून्य या स्थितिशून्य हैं, और समग्र लोक में व्याप्त हैं किन्तु अलोक में नहीं हैं। आकाश द्रव्य का अस्तित्व तो अधिकांश दर्शन और भौतिक विज्ञान निर्विवाद रूप से मानते हैं। नैयायिक एवं वैशेषिक दर्शन आकाश को शब्दगुण वाला मानते हैं । बौद्ध दर्शन ने आकाश को एक धातु मानकर उसका कार्य ऊर्ध्व-अधः-तिर्यक रूपों का परिच्छेद (विभाग) करना बताया है। न्यूटन ने आकाश और काल को वस्तु सापेक्ष वास्तविक स्वतन्त्र तत्व बताया Lesson No.2-What is १ Hollywood R & T. : Instruction ___Ether ? २ शब्दगुणकमाकाशम्'-तर्कसंग्रह । ३ छिद्रमाकाशधात्वाख्यं अलोकतमसी किल। -अभिधर्म कोश १/२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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