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________________ आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद | २३६ लिए तब धर्माचरण का रूप लेता है, जब वह शुद्ध अध्यात्म-दृष्टि से षड्द्रव्यात्मक लोक का मूल्यांकन करे । निश्चयनय की दृष्टि से कोई भी वस्तु अपने आप में इष्ट (प्रिय) या अनिष्ट (अप्रिय) नहीं है, किन्तु यह तो उस वस्तु के ग्राहक (मल्यांकनकर्ता) की दष्टि पर निर्भर है कि वह व्यवहार में किस वस्तु को इष्ट या अनिष्ट मानता है। यदि किसी ग्रहणकर्ता व्यक्ति की दष्टि अशुद्ध-असम्यक विषम या असंस्कृत है तो उसके द्वारा किया गया मूल्य-निर्णय भी अशुद्ध या असम्यक् होगा, किन्तु अगर ग्रहणकर्ता की दृष्टि शुद्ध सम्यक एवं सम है तो उसके द्वारा किया गया मूल्यनिर्णय पारमार्थिक दृष्टि से शुद्ध एवं सम्यक होगा । यही छद्मस्थ और केवली के द्वारा किये गये निर्णय में अन्तर है। तथापि छद्मस्थ यदि सम्यग्दष्टि है, कल्याणकारी दष्टि से किसी वस्तु को अपनाना जानता है, तो सर्वज्ञ आप्त पुरुष द्वारा किये गए वस्तु के मूल्यनिर्णय में निहित दृष्टिकोण या रहस्य को समझकर उस तत्वनिर्णय को श्रद्धापूर्वक अपना लेता है । लोकगत छह द्रव्यों का अस्तित्व धमं अधर्म-द्रव्य-जीव और पुद्गल की गति और स्थिति करने में किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है, वह माध्यम क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है। कोई भी वस्तु भले ही गति और स्थिति करने के स्वभाव वाली हो, उसे गति और स्थिति करने में सहायक होने वाली वस्तु की आवश्यकता रहती है। जैसे-रेलगाड़ी में दौड़ने की शक्ति है, परन्तु वह दौड़ सकती है लोहे की पटरियों पर ही, उनके विना नहीं। मछली में तैरने की शक्ति तो है, परन्तु जल की सहायता हो, तभी वह तैर सकती है। रेलगाड़ी में स्थिर होने की शक्ति तो है, परन्तु ब्रेक का निमित्त मिलने पर या स्टेशन आने पर स्थिर होती है। एक अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति में खडा रहने की शक्ति तो है, किन्तु दीवार या लकड़ी के सहारा मिले तभी वह खड़ा रह सकता है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को माने बिना लोकअलोक की व्यवस्था नहीं हो सकती । लोक इन्द्रियगोचर होने से किसी को सन्देह नहीं होता, किन्तु अलोक इन्द्रियगोचर नहीं, इसलिए उसके अस्तित्व नास्तित्व के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर कहा जा सकता है कि लोक का १ न रन्य नारम्यं प्रकृतिगुणतो बस्तु किमपि । प्रियत्वं वस्तूनां भवति च खलु ग्राहकवशात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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