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________________ २३८ | सद्धा परम दुल्लहा इनका धर्म है । अर्थात्-धर्म धुरन्धर वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों ने 'लोक' को षद्रव्यात्मक बताकर लोकगत उन ६ द्रव्यों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व बताया है, तथा उनके गुण-धर्मों, उपयोगिता तथा उपकारकता का जो मूल्यनिर्णय किया है, उसे उस रूप में जानना और मानना सम्यग्दर्शन के संदर्भ में अस्तिकायधर्म है । तथा लोकगत षड्द्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थों के अस्तित्व को मानने के साथ-साथ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल इन षट्द्रव्यों में कौन-सा द्रव्य आध्यात्मिक साधना में कितना उपयोगी और उपादेय है; कौन, कितना और कब हेय है ? आत्मा के साथ उस-उस द्रव्य का कैसा और कितना सम्बन्ध है ? किस-किस द्रव्य का कौन-कौन-सा गुणधर्म या स्वभाव है ? वह कितना अभीष्ट है, कितना अनिष्ट ? आत्मसाधना की दृष्टि से किस द्रव्य या पदार्थ का कैसे और कितना उपयोग करना है ? इत्यादि बातों का विवेक, श्रद्धान या रुचि करना ही अस्तिकायधर्म का आचरण है । यों देखा जाए तो वस्तु मात्र ही ज्ञेय है । और वह अस्तित्व की दृष्टि से है । सत्य यह है कि आध्यात्मिक सत्य का मूल्य सैद्धान्तिक है, और सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई वस्तु सत्यम् होते हुए भी शिवम् तभी हो सकती है, जब उसका मूल्यनिर्णय परमार्थ दृष्टि से- आत्मिक विकास की अपेक्षा से हो । उसका 'सुन्दरम्' भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से आंका जाए । उदाहरणार्थ ---वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श - शब्दात्मक पुद्गल बाह्य दृष्टि से तो हेय माने जाते हैं, मगर साधु-साध्वी को वस्त्र, पात्र कम्बल, पादप्रोञ्छन, पुस्तक, शास्त्रश्रवण, शरीर, इन्द्रियों, अंगोपांगों, भोज्य. पेयपदार्थों का सयम के निर्वाह के लिए पुद्गलरूप में ग्रहण एवं उपभोग करना अभीष्ट होने से पुद्गल कथंचित् उपादेय है । ' व्यवहारदृष्टिपरायण एक असंयमी व्यक्ति अपनी दृष्टि में पौद्गलिक भोग विलास, या रागरंग उच्च जीवनस्तर के लिए उपयोगी मानता है, किन्तु संयमी अध्यात्म साधनाशील मुमुक्षु की दृष्टि में सभी गीत-गायन विलाप मात्र हैं, सभी नाटक विडम्बनाएँ हैं, समस्त आभूषण भाररूप हैं और सभी कामभोग दुःखावह हैं । इसलिए अस्तिकाय धर्म सम्यग्दृष्टि के १ जंपि वत्यं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरति य ॥ सभं विलवियं गीयं मन्त्रं नटं विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥ २ Jain Education International For Private & Personal Use Only -दणवे ० ६/२० - उत्तरा० १३/१६ www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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