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२२६ ! सद्धा परम दुल्लहा
शिकार होते रहते हैं । उन दुर्गुणों को दूर करने की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। उन पापों और अधर्मों के आचरण के फलस्वरूप जब अशुभकर्मों के उदय से भयंकर सकट, कष्ट, दुःख और रोग आदि आ पड़ते हैं, तब वे उन्हें अपनी आत्मा के द्वारा पूर्वकृत अशुभकर्मों का फल न मानकर परमात्मा, भगवान् या किसी शक्ति - देवी - देव आदि को दोष देते हैं, काल, कर्म, या निमित्त को कोसते हैं, अथवा ईश्वर, भगवान् या देवी देवी के आगे गिड़गिड़ाकर दुःख दूर करने की प्रार्थना करते हैं, आत्मा को अपने उपादान को सुधारने की कोशिश नहीं करते । अपनी आत्मा पर लगे हुए अशुभकर्मों के निवारण के लिए कोई पुरुषार्थ, जप, तप, त्याग, आदि नहीं करते । आत्मा पर विश्वास न करके केवल ईश्वर, गॉड, खुदा या देवी-देवों पर विश्वास करने से मानव अपना समग्र जीवन इसी प्रकार व्यर्थ खो देता है । ईश्वर पर विश्वास रखकर भी तथाकथित धर्म-सम्प्रदायानुयायी लोग आत्मद्रोह करते रहते हैं । अतः केवल ईश्वर - विश्वास को ही उत्कृष्ट आस्था कहना आस्था का उपहास है । इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा थाप्राचीनकाल में वह माना जाता था कि जिसे ईश्वर में विश्वास नहीं, वह आस्तिक नहीं हो सकता, परन्तु अब यह मान्यता स्वीकृत की गई है कि जो आत्मा पर विश्वास नहीं रखता, उसे आस्तिक नहीं कहा जा सकता । वह एक प्रकार से नास्तिक है । आत्मा के प्रति आस्था गँवाकर आस्तिक बने रहने की बात सोचना महज ढोंग है ।
निर्भयता का बीज : वात्मवाद
जिसमें आत्मा के प्रति आस्था कूट-कूट कर भरी होती है, वह आत्मा के वास्तविक स्वरूप को सैद्धान्तिक दृष्टि से जानता मानता है । फलतः वह किसी भी आत्मा (प्राणी) से डरता - घबराता नहीं, क्योंकि वह समझता है कि जैसी मेरी आत्मा है, वैसी ही इसकी आत्मा है। इसकी आत्मा पर कर्मों के विविध आवरण होने के कारण यह अज्ञानवश भले ही मेरे शरीर को कष्ट दे ले, किन्तु मेरी आत्मा को जरा भी आँच नहीं पहुँचा सकता ।
आत्मा पर ऐसी दृढ़ आस्था के कारण ही आत्मवादो श्रावक अर्हन्तक को देवता द्वारा भयंकर कष्ट दिये जाने या मरणान्तक उपसर्ग किये जाने अथवा प्राणों को संकट में डालने एवं धन जन तथा परिजनों को नष्ट कर डालने का भय दिखाये जाने पर वह जरा भी भयभीत एवं विचलित नहीं हुआ। आत्मवाद की कठोर परीक्षा में वह उत्तीर्ण हुआ । साथ ही उसने अपने साथ जलपोत में यात्रा करने वाले अन्य व्यावसायिक लोगों
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