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________________ आस्तिक्य का मूल : आत्मवाद | २२५ है, वह आत्मा की होती है । शरीर से आत्मा के निकल जाने पर इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आदि होते हुए भी वे जानना, देखना, सूंघना, आदि क्रियाएँ नहीं कर सकतीं । इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रियाँ आदि अचेतन हैं आत्मा ही एकमात्र सचेतन है । सुख-दुःख का तथा सुख की इच्छा और दुःख से भय, अपने हित-अहित का कर्तृत्व और फल-भोक्तृत्व आदि लक्षण आत्मा में होते हैं, अजीव (जड़) में नहीं । इन्द्रियाँ, मन, मस्तिष्क आदि बाहरी वस्तुओं को जानने के साधन आत्मा के उपकरण हैं, आत्मा के ये सहायक हैं; स्वयं चेतनात्मक नहीं है। अतः आत्मा इन्द्रियातीत होने पर भी, 'नहीं' है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । इसीलिए बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है .... __विज्ञातारं अरे ! किम् विजानीयात् ? अरे ! उस जानने वाले को किसके आश्रय से जनाया जाय ? जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशमान होता है, उस प्रकाशमान को प्रकाश से देखने की क्या आवश्यकता ? आत्मा स्वयं प्रकाशित है, ज्ञानमय है, उसकी सत्ता का अनुभव करने के लिए दूसरी नई बुद्धि कहाँ से लाई जाए ? आत्मा इन्द्रियों को प्रकाश देने वाला है। इसी के कारण इन्द्रियों में चेतना है। यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आत्मवाद को सर्वप्रथम मानना श्रेयस्कर प्राचीनकाल में यह मान्यता थी कि जिसे परमात्मा पर विश्वासआस्था नहीं, वह आस्तिक नहीं हो सकता। परन्तु वर्तमान में यह मान्यता अधिक प्रचलित है, जैन दर्शन मान्य भी है कि जो आत्मा पर विश्वास नहीं रखता, वह नास्तिक है। क्योंकि शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है । आत्मा को न मानदे पर परमात्मा को भी माना नहीं जा सकेगा ? परमात्मा आत्मा की ही पूर्ण विकसित, उत्कृष्ट एवं शुद्ध अवस्था है। अधिकांश धर्म-सम्प्रदायों के लोगों में ईश्वर, खुदा या गौड पर तो आस्था होती है, किन्तु आत्मा और आत्मा से सम्बन्धित कर्मवाद कर्मफलस्वरूप परलोक, पुनर्जन्म आदि पर कोई आस्था नहीं होती। फलतः उस विकृत एकांगी आस्था के कारण उक्त धर्म सम्प्रदायों के अनुयायी दूसरे धर्मसम्प्रदायों के अनुयायी लोगों के साथ लड़ते-भिड़ते हैं, वैर-विरोध रखते हैं, द्वषपूर्वक परस्पर मारकाट मचाते हैं। साथ ही वे विकृत-आस्थावान् लोग अन्याय, अनीति, भ्रष्टाचार, हिंसा, झूठ-फरेब, चोरी, ठगी आदि दुगुणों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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