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२२४ | सद्धा परम दुल्लहा
बन्धनों से मुक्त होते हो वह ऊर्ध्वगमन करके एक समय में लोक के अग्रभाग में जा पहुँचता है ।
वह निश्चय दृष्टि से नित्य होने पर भी कर्माश्रित होने से संसर्ता - जन्ममरण रूप संसार में भ्रमण करता है । तथा एक दिन जन्म-मरणरूप संसार से मुक्त भी हो सकता है । बशत कि वह कर्मबन्धनों से सर्वथा रहित हो ।
बौद्धदर्शन - अनित्यवादी है । आत्मा क्या है, कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा ? इन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर भी तथागत बुद्ध ने कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष (निर्वाण ) का स्वीकार किया है ।
नैयायिक - आत्मा को कूटस्थ नित्य और विभु ( सर्वव्यापक) मानते हैं। वे इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख और ज्ञान इन लिंगों से आत्मा का अस्तित्व मानते हैं, वैशेषिक भी इसी प्रकार आत्मा का स्वरूप और अस्तित्व मानते हैं, किन्तु मुक्ति के लिए आत्मा के समस्त गुणों का विच्छेद मानते हैं ।
सांख्यदर्शन आत्मा को नित्य और निष्क्रिय मानता है । यथा
अमूर्त श्वेतनो भोगो, नित्यः सर्वगतोऽक्रिय :
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म: आत्मा कपिलदर्शनेः ||
सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं, फलभोक्ता मानते हैं । वे प्रकृति को कर्त्री मानते हैं ।
वेदान्त के मतानुसार स्वभावतः आत्मा (ब्रह्म) एक है, किन्तु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है । रामानुजीय मतानुसार आत्मा अनन्त हैं और एक दूसरे से सर्वथा पृथक् हैं ।
उपनिषदों के अनुसार आत्मा शरीर से विलक्षण, मन से भिन्न, विभु( व्यापक) और अपरिणामी है, वाणी द्वारा अगम्य है । न वह स्थूल, अणु, क्षुद्र, या विशाल है और न ही वह सघन, द्रव, छाया, तम या वायु, आकाश है | वह गन्ध, रस, स्पर्श, तम छाया संग तेज आदि भी नहीं है ।
मीमांसक - आत्मा को नित्य मानते हुए भी अवस्थाभेदकृत भिन्नता मानते हैं ।
इन्द्रियाँ आदि आत्मा नहीं है- इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि आत्मा नहीं हैं । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में जो जानने आदि की शक्ति होती
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