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आस्तिक्य का मूल : आत्मवाद | २२३
रूप नहीं दीखता, फिर भी नाक द्वारा उसका ग्रहण ज्ञान होता है वैसे ही आत्मा के न दीखने पर भी ज्ञानादि गुणों के द्वारा उसका ग्रहण-ज्ञान होता है।
(४) चेष्टाओं द्वारा आत्मा का ग्रहण-किसी भी व्यक्ति के शरीर में भूत प्रविष्ट हो जाता है, तब वह यद्यपि दीखता नहीं, किन्तु भूताविष्ट व्यक्ति को आकृति और चेष्टाओं द्वारा जान लिया जाता है। उसी तरह शरीर में रहा हुआ आत्मा हास्य, नृत्य, सुख-दुःख, बोलना, सोचना, चलना आदि विविध चेष्टाओं द्वारा जाना जाता है ।
(५) आत्मा और आकाश की तुलना-जैसे आकाश त्रिकाल में अक्षय, अनन्त, और अमूर्त है, फिर भी वह अवगाह गुण से जाना जाता है, वैसे ही आत्मा निश्चयदृष्टि से अनन्त, अमूर्त और अक्षय है, किन्तु वह ज्ञान गुण से जाना जाता है।
निश्चय दृष्टि से आत्मा इन्द्रियों से अगोचर शुद्ध बुद्ध रूप तथा वर्णादि रहित अरूपी अमूर्तिक है, किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से वह कर्मों से बद्ध होने के कारण तथा मूर्तिक कर्माधीन होने से वर्णादि सहित है ।
(६) आत्मा का शरीर के अनुसार परिमाण-जीव (आत्मा) का पर्यायाथिकनय की दृष्टि से शरीर के अनुसार संकोच और विस्तार होता है । हाथी के शरीर में हाथी जितना विस्तृत, किन्तु कुन्थुआ के शरीर में उसके जितना संकुचित । संकोच विस्तार होते हुए भी दोनों दशाओं में प्रदेश संख्या और अवयव संख्या समान रहती है।
(७) आत्मा : काल की दृष्टि से-जैसे काल अनादि और अविनाशी है, वैसे ही आत्मा भी तीनों कालों में प्रवाह दृष्टि से अनादि-अविनाशी
विभिन्न दर्शनों में आत्मा का स्वरूप- पूर्वोक्त तथ्यों के अनुसार जैन दर्शन आत्मा को चैतन्यमय परिणामी नित्य, कर्ता और भोक्ता, स्वयं अपनी शुभाशुभ प्रवृत्तियों से शुभाशुभ कर्मों का संचय कर्ता और उनका फलभोक्ता है, वह स्वदेह प्रमाण है, न तो वह अणु है, न विभु (सर्वव्यापी) है किन्तु मध्यम परिमाण का है । निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा क्रियारहित है, किन्तु शरीराश्रित होने से वह सक्रिय है, विविध योग से प्रवृत्ति करता है । निश्चयनय से आत्मा ऊर्ध्वगतिशील है, क्योंकि उसमें गुरुत्व नहीं होता। कर्मबन्धन है, तब तक वह भारी होने के कारण अधोगति में जाता है। कर्म
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