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________________ २२२ | सद्धा परम दुल्लहा धारण किया था, उससे उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया । आयुष्य की अवधि पूर्ण होने पर उसका इस शरीर से छुटकारा हुआ । आत्मा की शरीर-परिवर्तन की इस क्रिया को मरण कहा जाता है । वस्तुत: यह आत्मा का मरण नहीं है। इसे 'अविनाशी' इसलिए कहा गया है कि शस्त्र उसका छेदन नहीं कर सकते, आग उसे जला नहीं सकती, जल उसे भिगो कर गला नहीं सकता, वायु उसे सुखा नहीं सकती, किसी भी शक्तिशाली मंत्र या रासायनिक प्रयोग से आत्मा का विनाश नहीं हो सकता । शरीर अवश्य कटता, जलता, गलता, सूखता या नष्ट होता है । इसे 'अक्षय' इसलिए कहा गया है कि आत्मा का कभी क्षय नहीं होता, वह भूतकाल में जितना था, उतना ही आज है, आगे भी रहेगा । शरीर में अवश्य हानि-वृद्धि होती है, आत्मा में नहीं । आत्मा को ध्रुव इसलिए कहा गया है कि पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से वह कमवण सिंह, हाथी, मनुष्य, देव, नाक आदि नानापर्यायें धारण करता है, किन्तु द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्यरूप में वह स्थायी रहता है । इसे 'fer' इसलिए कहा गया है कि आत्मा द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से नित्य एक-सा रहता है । किन्तु पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से वह नाना पर्यायें धारण करता है, इसलिए अनित्य भी है । आत्मा की असाधारण विशेषतायें इसके अतिरिक्त आत्मा की असाधारण विशेषताओं को भी जैन इष्टि से जानना जरूरी है । (१) नित्य - अनित्य - सोने के मुकुट, कुण्डल आदि अनेक रूप बनते हैं, इन अनेक रूपों में चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जीब ( आत्मा ) की पर्यायें बदलती हैं । अर्थात् रूप और नाम बदलते हैं, जीवद्रव्य ( आत्मा ) बना का बना रहता है । सोने के मुकुट कुण्डल आदि बनते हैं तब भी वह सोना ही रहता है केवल नाम और रूप में अन्तर पड़ता है । (२) कर्तत्व भोक्तृत्व - जैसे लुहार कार्य करता है और उसका फल भोगता है, वैसे ही जीव ( आत्मा ) स्वयं कर्म करता है और उसका फल भी स्वयं भोगता है । (३) आत्मा का ज्ञानगुण से ग्रहण - जैसे चन्दन आदि की सुगन्ध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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