SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ | सद्धा परम दुल्लहा के सम्यग्दर्शन गुण पर छाये हुए मिथ्यात्व मोह के गाढ़ आवरण को हटा देने से व्यक्ति में सम्यक् श्रद्धा प्रकट हो सकती है, चाहिए उसके लिए दृढ़ श्रद्धा, मुमुक्षा और तीव्रतम साधना । सम्यग्दृष्टि (सुश्रद्धा) की उपलब्धि का अर्थ सम्यग्दर्शन या सम्यक श्रद्धान की उपलब्धि या प्राप्ति का अर्थ यह नहीं है कि आत्मा में पहले दर्शन या श्रद्धान था ही नहीं और अब वह नया उपलब्ध या उत्पन्न हो गया है । दर्शन की इस प्रकार अकस्मात् उत्पत्ति मानने का अर्थ होगा, किसी दिन उसका विनाश भी सम्भव है । तात्पर्य यह है कि सम्यक श्रद्धा या सम्यग्दष्टि की उत्पत्ति या उपलब्धि का अर्थ किसी नये पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि आत्मा का जो श्रद्धान या दर्शन विकृत हो गया है, उसका अविकृत हो जाना, जो पराभिमुख हो गया है उसका स्वाभिमूख हो जाना,जो श्रद्धा मिथ्या हो गई है उसका सम्यक हो जाना है। श्रद्धान या दर्शन आत्मा का निज गण है, उसी की ही मिथ्या और सम्यक दोनों पर्याय हैं । मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन दोनों में ही 'दर्शन' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन या श्रद्धान गुण कभी मिथ्या होता है, कभी सम्यक् । मिथ्यादर्शन का फल है संसार और सम्यग्दर्शन का फल है- मोक्ष । जैसे अन्धकार और प्रकाश दोनों एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही दर्शन गुण की मिथ्या और सम्यक् दोनों पर्यायें एक साथ नहीं रह सकती। निष्कर्ष यह है कि दर्शन या श्रद्धान गुण कोई बाहर से आने वाला नहीं है, वह तो आत्मा में सदा सर्वदा से विद्यमान है। इसलिए सम्यग्दर्शन उपलब्ध या प्राप्त कर लिया, इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति में इससे पूर्व दर्शन था ही नहीं और आज वह नया उपलब्ध हो गया है, इसका स्पष्ट अर्थ इतना ही होगा कि आत्मा में जो दर्शन गुण अनन्तकाल से विद्यमान था, उसकी मिथ्यात्वपर्याय का त्याग करके उसने सम्यक्त्व-पर्याय को प्राप्त कर लिया है । शास्त्रीय भाषा में इसे ही सम्यग्दर्शन या सम्यक् श्रद्धा की उपलब्धि या प्राप्ति कहा जाता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार सम्यग्दर्शन की उपलब्धि या प्राप्ति का यही अर्थ यहाँ अभीष्ट है कि सम्यग्दर्शन मूलतः कोई नई प्राप्त करने जैसी वस्तु नहीं है, बल्कि जिसकी सत्ता आत्मा में सदा से थी, उसी को शुद्ध रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy