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सुश्रद्धा की उपलब्धि का व्याकरण | १६
मैं जानना, पहचानना और देखना । एक वाक्य में कहे तो सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का अर्थ है-मिथ्यात्वभाव को हटाकर उसे सम्यक् बनाना। . . आत्मा में अनन्त-अनन्त सद्गुणों को राशि भरी हुई है। किन्तु उसका परिबोध या सम्यक ज्ञान-भान न होने से वह सांसारिक इन्द्रियजनित विषय-सुखों का भिखारी बना हुआ है। वह मिथ्याश्रद्धा के कारण संसार में रहता हुआ आत्मिक सुख की प्राप्ति के बदले दुःखबीज वैषयिक सुखों के दलदल में फंसा हआ है। आत्मा में अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र का अक्षय भण्डार भरा हुआ है, लेकिन मिथ्यादर्शन, अज्ञान एवं मोह के आवरण के कारण जीव को इसका ज्ञान-भान नहीं है। इसलिए अनन्त शक्ति का स्वामी होकर भी आत्मा मिथ्याश्रद्धा के कारण आज से ही नहीं, अनन्त काल से अपने आपको दीन, होन, अनाय एवं असमर्थ समझता आया है। जिस दिन उसे अपनी उस अनन्त अक्षय निधि की स्पष्ट प्रतीति हो जाती है, उसी दिन अपने स्वरूप का सम्यक् बोध या दर्शन हो जाता है, और मिथ्यात्व, अज्ञान एवं मोह का अन्धकार भाग जाता है, सम्यग्दर्शन का सूर्य प्रादुर्भूत हो जाता है, आत्मा के उस दिव्य आलोक पर से आवरण दूर हो जाता है, यही सम्यग्दर्शन की उपलब्धि, प्राप्ति या आविर्भाव है।
सम्यश्रद्धा की उपलब्धि होने पर सम्यश्रद्धा की उपलब्धि या प्राप्ति होते ही आत्मा को यह स्पष्ट प्रतीति या दृढ़ निश्चय हो जाता है कि 'मैं केवल आत्मा हूँ, अन्य कुछ नहीं। मेरी आत्मा में अपार शक्ति है, असीम बल-वीर्य है । मैं केवल चेतन हैं, जड़ नहीं। मैं सदा शाश्वत हूँ, नित्य हूँ, अच्छेद्य हूँ, अभेद्य हूँ, अदाह्य हूँ, अशोष्य हूँ, क्षणभंगुर, नाशवान या छेदन-भेदन योग्य नहीं । न मेरा कभी जन्म होता है, न मरण । मैं शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वाणी आदि से पर है, अलग हैं। ये जन्म-मरण मेरे नहीं, शरीर के हैं। मेरा यह शरीर ही जन्म-मरण करता है, मैं नहीं। मैं अजर-अमर, अविनाशी, अनन्त ज्ञान, 'दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) से संपन्न आत्मा हूँ। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होने पर व्यक्ति को यह प्रतीति हो जाती है कि -
1एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः ।
बहिर्भवा सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥ । सामायिक पाठ श्लोक २६ ।
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