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२१२ | सद्धा परम दुल्लहा
उपदेश दे सकता है । पुण्य उपार्जन करने के 8 प्रकार भी समझा सकता है, पूर्वकृत अशुभ कर्मों का क्षय (निर्जरा) करने का तथा नये कर्मों को आने से रोकने के सरल, सरस, सुलभ, सुकर उपाय भी बता सकता है, समभाव, सन्तोप, शान्ति, क्षमा, दया, व्रत, नियम, त्याग प्रत्याख्यान आदि सद्धर्म के अंगों के ग्रहण - पालन की प्रेरणा भी कर सकता है जिनसे उसके अशुभ कर्म करें, शुभकर्मों में वृद्धि हो, संवर और पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा (क्षय) होने से पुण्य और धर्म में वृद्धि होगी । स्वाभाविक है कि उस दुखित पीड़ित का दुःख दूर हो जाय, सुख-शान्ति बढ़े ।
क्या साधु वर्ग के द्वारा भावानुकम्पापूर्वक परोक्ष रूप से की गई यह द्रव्यानुकम्पा नहीं है ?
चार भंगों में से सम्यग्दृष्टि किन भंगों में ?
यही कारण है कि स्थानांग सूत्र में आत्मानुकम्पी और परानुकम्पी की चभंगी बताई गई है -
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( १ ) एक व्यक्ति आत्मानुकम्पी होता है, परानुकम्पी नहीं । (२) एक व्यक्ति परानुकम्पी होता है, आत्मानुकम्पी नहीं । (३) एक व्यक्ति आत्मानुकम्पी भी होता है, परानुकम्पी भी । (४) एक न तो आत्मानुकम्पी होता है, और न परानुकम्पी ।
इसमें चतुर्थ भंग वाला व्यक्ति तो अनुकम्पा से शून्य है । इसके अतिरिक्त अपनी आत्मा की अनुकम्पा का भाव नहीं है जिसकी आत्मा अमर्यादित हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, व्यभिचार, अत्यधिक परिग्रह - संग्रहवृत्ति, महारम्भमहापरिग्रह से लिप्त है, वह व्यक्ति किसी दुःखी को देखकर यदि धन, साधन आदि से सहायता पहुँचाता है, तो उसकी यह अनुकम्पा केवल परानुकम्पा है, अधूरी और एकांगी है, अतः ऐसा व्यक्ति अहिंसादि धर्म से सर्वथा विहीन होने से सम्यक्त्व नहीं कहला सकता। तीसरे भंग वाला व्यक्ति तो अनुकम्पाप्रवण है ही । प्रथम भंग में दो प्रकार के व्यक्ति हो सकते हैं - एक तो साधु वर्ग, जो संसार के समस्त प्राणियों को आत्मैकत्व दृष्टि से देखता है, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना को लेकर चलता है वह किसी को मन से भी पीड़ा नहीं पहुँचाता, किन्तु परानुकम्पा करने का जहाँ तक प्रश्न है, वह पूर्वोक्त दृष्टि से प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से परानुकम्पी है ही । इस भंग में दूसरा व्यक्ति
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