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सम्यग्दृष्टि का चौथा चिन्ह : अनुकम्पा | २११
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मिट्टी के ढेले का उपयोग भी विवेकपूर्वक करता है । मिट्टी भी व्यर्थ खर्च नहीं करता । वायु भी प्रदूषित न हो, इसकी सावधानी रखे, स्वच्छता रखे । अग्नि, बिजली आदि सब के उपयोग में जागृति रखे । वनस्पति का एक पत्ता भी बिना मतलब के न तोड़े, नहीं मसले । यों विना कारण प्रमादवश किसी भी जीव की एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की मन-वचनकाया से किसी भी प्रकार की हिंसा न करे । किसी मानव के साथ अनुकम्पा - शील मानव अब्बल तो कलह करेगा नहीं । कदाचित् किसी के साथ कलह हो जाए तो वह परस्पर प्रेम भाव से मिठास से उसका निपटारा कर ले इसी प्रकार वह अपने घर, दूकान आदि में यतना, स्वच्छता, सादगी इस प्रकार की रखेगा कि मच्छर, खटमल, जू, साँप - बिच्छू आदि जन्तु पैदा ही न हों । सारांश यह है कि समस्त जीवों को सुख खाता हो, ऐसा ज्ञानपूर्वक व्यवहार ही वस्तुतः अनुकम्पा है ।
यद्यपि गृहस्थ श्रावक खेती करता है, रसोई बनाता है, फलों-फूलों का बाग-बगीचा लगाता है. गो-पालन करता है, अपनी आजीविका के लिए सात्त्विक व्यापार करता है या नौकरी करता है, सन्तान का पालन-पोषण करता है, इत्यादि कार्यों से आरम्भ समारम्भ होता है । अतः शास्त्रकारों ने बताया कि श्रावक आरम्भजा, उद्योगिनी, विरोधिनी, इन तीन हिंसाओं से प्रायः बच नहीं सकता । द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के स्थूल जीवों की जानबूझकर आकुट्टिबुद्धि से संकल्पजा हिंसा उसके लिए वर्जनीय होगी । उसके जीवन में भाव अनुकम्पा तो पूर्णतया होगी, परन्तु द्रव्य- अनुकम्पा में उसकी मर्यादा होगी।
साधुवर्ग में भावानुकम्पा में द्रव्यानुकम्पा गर्भित
कई लोग शंका करते हैं कि साधु भी द्रव्धानुकम्पा नहीं कर पाते, क्योंकि उनके पास जब निर्धनता, दरिद्रता, रोग, बेकारी, नीच जाति, कुसंस्कार, कुटेव आदि के कारण दुःखित पीड़ित कई लोग आते हैं, तब वह अर्थ आदि का सहयोग स्वयं नहीं दे सकता। ऐसी स्थिति में द्रव्यानुकम्पा से रहित जीवन सम्यक्त्व के होने की पहचान कैसे करायेगा ?
इसका समाधान यह है कि अनुकम्पा का वास्तविक उद्गम तो भाव | भावानुकम्पा पूर्णतया होनी चाहिए । भावानुकम्पा होगी तो साधु वर्ग अपनी मर्यादा में रहकर गृहस्थ के कुसंस्कार, कुटेव, दुर्व्यसन छोड़ने का
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