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________________ १६ | सद्धा परम दुल्लहा निकलते, तो 1 देते थे, किन्तु वाणी उनके अन्तर् को नहीं छू पाई थी । एक नगर में जब वे पधारे तो वहाँ के राजा ने उनकी परीक्षा करने के विचार से उनके निवास स्थान के बाहर बारीक कोयले के चूरे का ढेर लगवा दिया। रात्रि को जब उनके शिष्य लघुशंका - परिष्ठापन करने के लिए बाहर कोयले के चूरे में लघु जीव होने की शंका से वापस लौटने लगे । यों एकएक करके ५०० ही शिष्य वापस लौट गए और आचार्य से वहाँ लघु शंका न परठने का कारण सुनाया । आचार्य सबकी बात सुनकर आवेश में आए और कोयले के चूरे पर दबादब चल पड़े । कहने लगे- 'कहाँ हैं यहाँ जीव ? ये तो कोयले हैं ।" जीवों के विषय में उन्होंने कोई छानबीन भी नहीं की, जो शिष्य तर्क करता, उसे वे डाँट कर मुँह तोड़ जबाब दे देते। इस प्रकार वे बेखटके उन कोयलों को रौंदते हुए चले गए । राजा ने उनके इस आचरण के विषय में सुना तो समझ गए कि ये आचार्य विद्वान तो हैं, किन्तु केवल वाणीशूर हैं, इनका हृदय आत्मा-परमात्मा की आस्था से शून्य है, जबकि इनके शिष्य आस्थावान हैं । अतः शब्दात्मक श्रद्धा जब तक आत्म लक्ष्ली एवं अनुभवात्मक न हो तब तक वह सम्यक् श्रद्धा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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