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________________ सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन | १५ लेता है, उन पर चर्चा, शंका-समाधान एवं भाषण कर लेता है, वाणी से श्रद्धा भी उन पर तथा देव-गुरु-धर्म पर प्रकट कर देता है, दूसरों को भी तीन श्रद्धय तत्वों तथा नौ तत्वों का स्वरूप भली-भाँति समझा देता है, परम्परागत संस्कारों के कारण वह धर्म-संप्रदाय के गुरुओं से तत्व भूत पदार्थों की जानकारी कर लेता है, कहता भी है, मेरी पक्की श्रद्धा है इन तत्वों तथा श्रद्धय त्रिपुटी के प्रति । ये व ऐसे तथाकथित व्यक्ति तब तक सम्यक् श्रद्धा युक्त नहीं कहलाते, जब तक ज्ञ ेय से तत्वों को जानकर उपादेय को ग्रहण करने और हेय को त्यागने की ओर उनका झुकाव न हो । उसकी श्रद्धा शब्दात्मक न होकर अनुभवात्मक हो, तभी ब्यवहार दृष्टि से सम्यक् श्रद्धा हो सकेगी । आत्मलक्ष्यी सम्यग्श्रद्धा के अभाव में जो व्यक्ति सम्यक् श्रद्धा पर निष्ठा भक्ति नहीं रखता, केवल अनेकविध शास्त्रों को रट रटा कर बाह्य ज्ञान में वृद्धिकर लेता है, वह अहंकार, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों से घिर जाता है । आचार्य अंगारमर्दक का नाम जैन जगत् में प्रसिद्ध है । वे अपने युग के महान् विद्वान एवं प्रतिभाशाली आचार्य थे । उनके पाण्डित्य का सभी लोहा मानते थे । बड़े-बड़े धनाढ्य और सत्ताधीश भी उनके चरणसेवी थे । उनकी शिष्य मण्डली भी बहुत बड़ी थी । एक से एक बढ़कर सुन्दर, सुकुमार किन्तु सुख-शान्ति के इच्छुक राजकुमार उनके उपदेशों से विरक्त हो कर उनसे साधु जीवन अंगीकार कर चुके थे । आचार्य की तर्कशक्ति, ग्रहणशक्ति, स्फुरणाशक्ति, धारणाशक्ति और प्रतिभाशक्ति भी अनूठी थी । वे किसी भी विषय पर इतनी गहराई विश्लेषण, विवेचन करते थे कि श्रोतागण मन्त्र मुग्ध हो जाते थे वाद-विवाद में भी वे ऐसे अकाट्य तर्क, युक्तियाँ और प्रमाण प्रस्तुत करते थे कि प्रतिपक्षी प्रभावित होकर नतमस्तक हो जाता था । वे विद्याओं और प्रज्ञा के भण्डार थे । जहाँ कहीं भी वे पधारते, जन समुदाय उनकी अमृतस्राविणी वाणी सुनने को उत्कण्ठित रहता था । परन्तु इतना सब होते हुए भी आत्मिक विकास के सर्वप्रथम आलोक सम्यक् श्रद्धा की सम्पत्ति उनके पास नहीं थी । आचार्य पद पर आरूढ़ होने पर भी उनके हृदय में आत्मा के अस्तित्व, उसकी शुद्धि और परिपूर्णता के उपाय के विषय में उन्हें श्रद्धा निष्ठा नहीं थी । वागी से वे आत्मा-परमात्मा विषय पर लच्छेदार, रोचक एवं प्रभावशाली भाषण दे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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