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________________ सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १६५ प्रेरणादायक है । चित्त मुनि द्वारा बार-बार समझाने पर भी सम्भूतमुनि ने चक्रवर्ती की ऋद्धि-राज्यसुख वैभव, रानी इत्यादि पाने का निदान कर ही लिया था, हस्तिनापुर के चक्रवर्ती की रानी तथा राज्य वैभव आदि को देखकर। इसीलिए आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा है दिहि निध्वयं गच्छेज्जा ? देवलोक के वैभव एवं सुखों आदि को हम लोग प्रत्यक्ष नहीं जानतेदेखते, किन्तु शास्त्रों द्वारा ही हम वहाँ की वैषयिक सुखभोगों की स्थिति जान पाते हैं। अगर उस वर्णन को सुनकर उस पर ललचा गए तो इतोभ्रष्टस्ततोभ्रष्ट हो जाएँगे। इसीलिए शास्त्रकारों का कहना है कि अगर तुम्हारी वीतराग-सर्वज्ञ प्ररूपित शास्त्रवचनों पर सम्यक् श्रद्धा है तो देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि के विषयों का वहाँ की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करके उनमें ललचाओ मत, निर्वेद-वैराग्य धारण करो। ज्ञान के साथ विरक्ति होनी आवश्यक है । कहा भी है "ज्ञानस्य फलं विरतिः ।" । ज्ञान का फल विरति-विरक्ति है । सम्यग्दृष्टि श्रावक हो या साधु, वह देखे या सुने हुए विषयभोगों के प्रति अनासक्त या विरक्त रहता है। इतना ही नहीं, दृढ़धर्मी सम्यग्दृष्टि साधक जब एक बार विषयों से विरक्त हो जाता है, तो प्रतिष्ठा, यशकीर्ति, वाहवाही, प्रशंसा आदि से भी अनासक्त रहता है। वह इन लुभावने, किन्तु संसार में भटकाने वाले विषयों में जरा भी ललचाता नहीं। दृढ़ ब्रह्मचारी स्थूलभद्र मुनि कोशावेश्या के हावभाव, रागरंग, भोगों की प्रार्थना, काम उत्तेजक वातावरण आदि देख-सुनकर जरा भी विचलित न हुए, क्योंकि उनके हृदय में संवेगपूर्वक दृढ़ वैराग्य- निर्वेद स्थिर हो गया था। वैराग्य के प्रकार उत्पत्ति को दृष्टि से वैराग्य के तोन प्रकार हैं। इस संसार में सभी १ आचारांग श्रु. १, उ. ४ सू. १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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