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१६६ सद्धा परम दुल्लहा
का वैराग्य एक-सा नहीं होता। किसो को वैराग्य प्राप्त होने में दुःख निमित्त बनता है, किसी को वैराग्य प्राप्त होने में मोह कारण बनता है, और किसी को पूर्वजन्म के शुभसंस्कारवश ज्ञानभित वैराग्य उत्पन्न होता है। वह संसार के समस्त पदार्थों का वास्तविक वस्तुस्वरूप समझकर विरक्त होता है। उसके वैराग्य में निमित्त बनता है-वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ।
इस दृष्टि से वैराग्य के भी तीन प्रकार होते हैं--मोहगर्भित, दुःखगर्भित और ज्ञानभित । किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी के प्रति अत्यन्त मोह है । एक दिन के लिए भी उसे अपनी पत्नी का वियोग असह्य हो जाता है। वह चाहता है कि पत्नी मेरे साथ हरदम रहे। परन्तु प्रकृति का नियम है कि किसी भी जीव का आयुष्य पूर्ण होने पर वह एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। यदि आयुष्य के क्षणों को - यानी मृत्यु को कोई रोकना चाहे तो नहीं रोक सकता : एक दिन उस व्यक्ति की पत्नी का अकस्मात् देहान्त हो गया। उस व्यक्ति को बहुत ही आघात लगा। वह शोकमग्न होकर बैठ गया। पत्नी के वियोग के बाद उसके मन में चिन्तन की चिनगारी पैदा हई-"संसार के सारे पदार्थ अनित्य हैं, सारे ही सम्बन्ध नाशवान हैं। पतिपत्नी, भाई-बहन, माता-पिता आदि सारे सम्बन्ध टूटने वाले हैं। देखो न, मेरी ही पत्नी मुझे छोड़कर सहसा चली गई। अब मेरा इस घर में रहना बेकार है।" इस प्रकार पत्नी के मोह के निमित्त से उसे वैराग्य हो गया। ऐसा वैराग्य मोहभित होता है। इसमें अन्दर-अन्दर हृदय के किसी कोने में मोह का अंश रहता है । तुलसीदासजी का रत्नावली (अपनी पत्नी) के प्रति अत्यन्त मोह था। मोह में विकल हो गए थे, वे रत्नावली के पीहर में जाने के कारण । अतः मोहान्ध तुलसीदास जब आधी रात को मुर्दे की ठठरी पर बैठकर बरसाती नदी पार करके अपनी ससुराल में पहुँचे तो रत्नावली ने उन्हें फटकारा
"जैसी प्रीत हराम में, वैसी 'हर' में होय ।
चला जाय बैकुण्ठ में, पल्ला न पकड़े कोय ॥" "आपको शर्म नहीं आती, इस प्रकार चुपके-चुपके चोर की तरह अंधेरी रात में चले आए हो? मैं तो यह कहती हूँ कि आपकी जितनी प्रीति इस मलमूत्र एवं हाड़-मांस के हराम के पुतले मेरे (शरीर) पर है, उतनी प्रीति भगवान् में होती तो आप बेखटके स्वर्ग पहुँच जाते । धिक्कार है आपको ?" रत्नावली के इन वचनों ने तुलसीदासजी के मानस को झकझोर दिया और उन्होंने उसी समय संसार से विरक्त होकर संतवृत्ति स्वीकार कर ली। राम
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