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________________ १६४ [ सद्धा परम दुल्लहा वैराग्य का यथार्थ लक्षण गुजराती साहित्य में एक कहावत है त्याग न टके रे वैराग्य बिना सच्चे वैराग्य के बिना कोई भी त्याग दीर्घकाल तक टिक नहीं सकता । कई व्यक्ति दिखावे के लिए कई वस्तुओं का त्याग तो कर देते हैं. परन्तु जब किसी दूसरे के पास उन या उनसे भी उत्कृष्ट सुख-सामग्री को देखते हैं, तो वे फिसल जाते हैं, उनके मन में वैराग्य कच्चा होने से या वैराग्य न होने से वे गृहीत त्याग से भ्रष्ट हो जाते हैं । इसीलिए पातंजल योगदर्शन में वैराग्य की परिभाषा की गई है "दृष्टाऽनुविक विषय-वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम् ।" अर्थात् देखे हुए और सुने हुए विषयों से वितृष्ण = उदासीन व्यक्ति द्वारा मन को वश में करने का नाम वैराग्य है । इन्द्रियों तथा मन के विषय दो प्रकार के होते हैं। एक वे हैं, जिन्हें आँखें देख चुकी हैं, दूसरे वे हैं, कानों से जिनके विषय में देखा सुना गया है या सुना जाता है। आँखों से देखे जाने वाले विषय-सुख तो सीमित हैं, किन्तु कानों से सुने जाने वाले विषय-सुखों की कोई सीमा नहीं होती। उदाहरणार्थ-कोई साधक देवलोक के भोगों, परिग्रह, वहाँ की ऋद्धि-वैभव आदि का वर्णन सुनकर वैराग्य कच्चा होने के कारण मन ही मन उन दिव्यसुखों-कामभोगों को पाने के लिए आतुर हो जाता है । यह कानों से सुने हुए विषय के प्रति विरक्ति नहीं, अनुरक्ति है । सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के ज्ञान में संसार के सभी उत्तमोत्तम पदार्थ झलकते हैं, किन्तु वे प्रत्यक्ष जान-देखकर भी उनसे विरक्त निलिप्त रहते हैं। उनमें बिलकुल लुब्ध नहीं होते। इसीलिए उन ज्ञानोजनों ने साधु-श्रावक दोनों को निर्देश दिया है कि-पढ़-सुनकर देवलोक या अन्य स्थल एवं काल के विषयसुखों या पदार्थों का ज्ञान भले ही प्राप्त करो किन्तु उस ज्ञान के साथ वैराग्य अवश्य होना चाहिए । वैराग्य होगा तो उस मनोज्ञ या इष्ट वस्तु को पाने की जरा भी लालसा नहीं होगी, उसका त्याग हार्दिक और स्थायी होगा। अगर साधक देखे या सुने हुए मनोज्ञ विषयों से अनासक्त या विरक्त नहीं होता तो वह अपनी की-कराई दीर्घकालीन साधना एवं त्याग से भ्रष्ट हो जाता है, विराधक बनकर दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। उत्तराध्ययन सूत्र में चित्त और सम्भूत मुनि का उदाहरण इस विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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