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________________ १८८ | सद्धा परम दुल्लहा "इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।" अर्थात् ---इन्द्रियाँ इन्द्रियविषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, इसमें मैं क्या कर रहा हूँ। मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, चिदानन्दमय हूँ !". रामकृष्ण परमहंस यह सुनकर दंग रह गए। उन्होंने कहा--"तुम्हारा यह तत्त्वज्ञान तो गधे को पीठ पर लदे हुए चन्दन के बोझ की तरह भारभूत है ! तुम्हारे जीवन में तो तत्त्वज्ञान की गन्ध भी नहीं है।" इसी प्रकार कई लोग जीव-अजीव की, द्रव्य-गुण-पर्याय की, भेदविज्ञान की, आत्मा और उसके गुणों की गहरी से गहरी चर्चा करते रहते हैं, परन्तु उनके जीवन में विषय-भोगों से, धन, स्वजन तथा स्वसम्प्रदाय, जाति, कौम, आदि परभावों से कोई विरक्ति नहीं, जहाँ भी ब्रह्मचर्य-पालन या परिग्रह त्याग या परिग्रहमर्यादा आदि की बात चलती है, वहाँ ऐसे लोग उसे शरीर का धर्म कहकर अपने आपको आत्मार्थी एवं मुमुक्ष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे तथाकथित तत्त्वज्ञानी तो इससे भी आगे बढ़कर धृष्टता भी प्रकट कर देते हैं क्या चोरी, जारी या हिंसा मेरी आत्मा कर सकती है ? यह तो हाथ ने या शरीर ने की है, इसमें मेरा क्या दोष ? शरीर तो आत्मा से पृथक है । इत्यादि। निर्वेद : सम्यग्दर्शन का ततोय लक्षण वास्तव में सम्यग्दर्शन एक अव्यक्तभाव या बाह्यदृष्टि से अज्ञात होता है । स्थूलदृष्टि वाले छद्मस्थ या परोक्षज्ञानसम्पन्न व्यक्ति इसे प्रत्यक्ष जान नहीं सकते । यही कारण है कि किसी व्यक्ति में सम्यग्दर्शन है या नहीं ? इसकी पहचान के लिए शास्त्रों में शम, संवेग, आदि सम्यक्त्व के पांच लक्षण बताए हैं । उनमें से एक महत्त्वपूर्ण लक्षण निर्वेद है । निर्वेद सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के जीवन को परखने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है । निर्वेद पर से सम्यग्दृष्टि व्यक्ति की सही परख हो सकती है। इसलिए निर्वेद को सम्यग्दर्शन का तीसरा लक्षण बताया गया है। इससे पूर्व 'संवेग' को सम्यक्त्व की पहचान का दूसरा लक्षण बताया गया था । संवेग में मोक्ष की इच्छा जागृत होती है, परन्तु वह प्रायः चिन्तन करने, सम्यक् विचार करने या मुंह से कहने तक सीमित रहता है जबकि 'निर्वेद' में तदनुरूप त्याग और कार्य भी किया जाता है । वस्तुतः सच्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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