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________________ सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद सम्यग्दृष्टि की पहचान कैसे हो ? मानव-जीवन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वरदानरूप है । परन्तु किसी व्यक्ति के जीवन में सम्यग्दर्शन है या नहीं, इसकी परख कैसे होती है ? वह विविध भाषाओं का ज्ञाता है, छह ही दर्शनों का विशेषज्ञ है, उसे मतमतान्तरों का बोध है, वह जैनागमों का पण्डित है, अनेक शास्त्र उसे कण्ठस्थ हैं, अनेक ग्रन्थों के उद्धरण उसकी जिह्वा पर नाच रहे हैं। वह तत्त्वज्ञान की गहराई तक पहुँचा हुआ है। उसकी प्रखरबुद्धि, विशाल अध्ययन एवं प्रवचनपटुता को देखकर लोग दंग रह जाते हैं। किन्तु इतना सब होते हुए भी उसकी विद्वत्ता, तत्त्वरुचि या पाण्डित्य आत्मलक्ष्यी नहीं है, उसकी दृष्टि में मोक्षरूप लक्ष्य को प्राप्त करने की तड़फन नहीं है विषयभोगों के प्रति उसकी आसक्ति तीब्र है। अथवा उसकी दष्टि लौकिक लाभपरक या किसी स्वार्थ से प्रेरित है तो कहा जा सकता है कि उसकी दष्टि संसारलक्ष्यी है । वह सम्यग्दृष्टि नहीं है क्योंकि विद्वत्ता और तत्त्वरुचि मात्र से वह सम्यग्दृष्टि है ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वैदिकधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीता के एक सुप्रसिद्ध पण्डित के विषय में जब रामकृष्ण परमहंस ने सुना कि वह अपनी धर्मपत्नी होते हुए भी एक कामिनी के मोह में फंस गया । उसके व्यभिचार का भण्डाफोड़ हो गया । एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने उसे समझाया कि आप इतने विद्वान् होते हए भी नीति-धर्म के विपरीत दुष्कृत्य क्यों करते हैं ? इसमें आपकी शोभा नहीं । तो उक्त पण्डित तपाक से भगवद्गीता का उद्धरण देकर अपने दुष्कृत्य का समर्थन करने लगा कि देखो, भगवद्गीता कहती है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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