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सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १८६
संवेग उत्पन्न होने पर 'निर्वेद' उत्पन्न होता ही है । मोक्षाभिलाषारूप संवेग जागृत होने पर उस व्यक्ति में विषयभोगों के प्रति उदासीनता, अनासक्ति या विरक्ति उत्पन्न होनी स्वाभाविक है । मोक्ष प्राप्ति की तड़फन जिसके हृदय में होगी, क्या उस व्यक्ति को सांसारिक वैषयिक सुखभोग रुचिकर प्रतीत होंगे ? - कदापि नहीं । जिसे आत्म-साक्षात्कार आत्मा की परिपूर्णता - मुक्ति या परमात्म-प्राप्ति की तीव्र उत्सुकता जागती है, वह संवेगवान् व्यक्ति उक्त उपलब्धि के मार्ग में बाधक तत्त्वों से अवश्य ही विरक्त, उदासीन अनासक्त या उपरत होने का प्रयत्न करता है । अतः जिसके हृदय में संवेग की हूक उष्ठती है, वह चिन्तनशूर या वाणीवीर ही नहीं रहता, अपितु अपने विचारों को मूर्तरूप देकर कार्यवीर बनता है । इसी से व्यक्ति के जीवन में सम्यष्टित्व का पता लग जाता है ।
यों तो संवेग और निर्वेद ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जैसे— अधर्म का त्याग और धर्मानुराग दोनों एक ही बात है । धर्म के प्रति अनुराग होगा तो अधर्म का त्याग अवश्य होगा और अधर्म का त्याग होगा तो धर्मानुराग अवश्य जागृत होगा । इसी प्रकार मोक्ष की अभिलाषारूप संवेग होगा तो मोक्ष प्राप्ति में बाधक सांसारिक विषय-भोगों के प्रति अरुचि, उदासीनता, अनासक्ति या त्याग-भावना-रूप निर्वेद अवश्य होगा । अतएव संवेग और निर्वेद दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है ।
निर्वेद का लक्षण
'निर्' और 'वेद' इन दो शब्दों से मिल कर 'निर्वेद' शब्द बना है | 'वेद' का अर्थ है --- अनुभव ( महसूस करना, भोगना, स्वाद का अनुभव करना । अतः निर्वेद का फलितार्थ हुआ - सांसारिक विषय-भोगों के प्रति त्याग की भावना करना, विरक्ति करना, अथवा विषय-भोगों के स्वाद का अनुभव न करना, अनासक्त रहना ।
निर्वेद का व्यावहारिक रूप
यद्यपि पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं- शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श । कोई भी देहधारी मानव इन विषयों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता । किसी साधक के कान में अच्छे या बुरे ( मनोज्ञ या अमनोज्ञ) शब्द पड़ते हैं । हर समय वह कान में अंगुलियाँ डाल कर उसे बन्द नहीं कर सकता । निर्वेदी साधक उन अच्छे या बुरे शब्दों का प्रभाव मन पर नहीं पड़ने देता । अर्थात् - वह किसी अच्छे बुरे शब्द को अपने मन को
सुनकर
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