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सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग | १८५ को संसार के दुःखों से मुक्त होने की इच्छा होगी वह धर्मश्रद्धा द्वारा संवेग बढ़ाएगा साथ ही संवेग द्वारा तीव्र धर्मश्रद्धा प्राप्त करेगा । तीव्र धर्मश्रद्धा जन्म, जरा, मरण आदि दुःखों से मुक्त कराने का कारण बनती है, और संवेग भी समस्त दुःखों से मुक्ति रूप मोक्ष की अभिलाषा को तीव्र करता है, धर्मपालन को मूर्त रूप देता है। निष्कर्ष यह है कि अनुत्तर धर्म अर्थात्मोक्ष रूप प्रधान धर्म पर द ढश्रद्धा मोक्ष-प्राप्ति का प्रबल साधन है। यह साधन तभी प्राप्त होता है, जब हृदय में मोक्षाभिलाषारूप संवेग उत्पन्न होता है।
अनुत्तर धर्म वह है, जो भव-बन्धनों से मुक्त कराता है, पर-भावों की परतंत्रता से मुक्त करके स्वतंत्रता प्राप्त कराता है। और पतितावस्था से बाहर निकालकर उन्नत अवस्था में पहँचाता है। बहुत-से लोग पुण्य और धर्म को एक समझ लेते हैं । अथवा पशुबलि, आदि पाप के मार्ग को धर्म मान बैठते हैं। इसलिए धर्म के साथ 'अनुत्तर' विशेषण लगाया गया है । जिसके हृदय में मोक्षाभिलाषारूप संवेग होगा, उसे अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा अवश्य होगी। जिसकी अनुत्तर धर्म पर दृढ़ श्रद्धा होगी उसे देव, दानव या मानव कोई भी सद्धर्म से विचलित नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति को चाहे कोई कितना हो भय या प्रलोभन दिखाये, वह अनुत्तर धर्म से जरा भी डिगेगा नहीं। जिसकी अनुत्तर धर्म पर दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होगई है, वह किसी भी सांसारिक फल को नहीं चाहता है। भगवान् ने बताया कि अनुत्तर धर्म श्रद्धा का वास्तविक फल अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया,
और लोभ नष्ट हो जाना है। जिनके होने पर जन्म-मरण का अन्त नहीं आता ऐसे क्रोधादि चार कषाय नष्ट हो जाते हैं या क्रोधादि कषाय बहुत ही स्वल्प और क्षीण हो जाते हैं । अनन्तानुबन्धी कषाय के नष्ट होने से मिथ्यात्व नहीं रह जाता, क्योंकि अनन्तानुबन्धो कषाय के कारण ही मिथ्यात्व उत्पन्न होता है । जब मिथ्यात्व नहीं रह जाता, तब सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । मिथ्यात्व के हट जाने पर सम्यग्दर्शन का आराधक व्यक्ति नये कर्म का बन्ध प्रायः नहीं करता। दर्शनविशुद्धि से जोव यों तो उसी भव में सिद्धमुक्त हो जाता है, अथवा तीसरे भव तक में तो वह अवश्य ही सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है।
यह है संवेग का विशुद्ध मोक्षरूप फल, जिसे पाकर साधक कृतकृत्य हो जाता है।
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