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________________ १८४ ) सद्धा परम दुल्लहा तन्निमित्तक मिथ्यात्व की विशुद्धि करके सम्यग्दर्शन का आराधक बनता है । दर्शन-विशुद्धि से कोई जीव उसी भव से सिद्ध हो जाता है, और कोई उस विशुद्धता से तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता, अर्थात-दर्शन विशुद्धि की वृद्धि होने से तीसरे भव में सिद्धि- मुक्ति अवश्य मिलती है। __संवेग से मिलने वाले अनन्तर फल और परम्पर फल दोनों का यहाँ कथन किया गया है। जब मोक्षाभिलाषा रूप संवेग प्रखर सूर्य के समान तीव्ररूप से हृदय में उदित होता है । तब पतंग रंग के समान अन्य लौकिक इच्छाएँ या पर-पदार्थों की इच्छाएं दूर हो जाती हैं, या अल्प हो जाती हैं। मोक्ष की इच्छा का तात्कालिक फल है ~अन्य इच्छाओं का दूर होना या अल्प होना । मोक्ष की इच्छा की तीव्रता-मन्दता के अनुसार ही अन्य इच्छाओं की मन्दता-तीव्रता या शून्यता का स्तर बनता है । ___ संवेग से अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। संवर और निर्जरा धर्म है । संवर से आते हुए नये कर्मों का निरोध होता है और निर्जरा से पुराने बँधे हुए कर्मों का क्षय होता है। तात्पर्य यह है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाला मुमुक्ष कर्मबन्ध को शिथिल करने तथा उससे सर्वथा मुक्त होने की भी इच्छा रखता है । जो व्यक्ति कारागार को बन्धन मानता है, वही उससे छुटकारा पाने की इच्छा करता है। जो व्यक्ति कारागार को बन्धन ही नहीं समझता, वह उससे छूटने की इच्छा ही क्यों करेगा ? बल्कि वह तो अपने अज्ञान के कारण उस बन्धन को और मजबूत कर लेगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति इस जन्म-मरणरूप संसार को बन्धन रूप मानता है, जेल समझता है, उसी को मोक्ष की-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा हो सकती है। बन्धन से मुक्त होने की इच्छा होती है, तब वह बन्धन से मुक्त होने के उपाय के रूप में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप रूप धर्म को अपनाता है, अथवा उस सद्धर्म पर उसकी दृढ़ धर्मश्रद्धा होती है, उस तीव्र धर्मश्रद्धा से संवेग उत्पन्न होता है, और संवेग से सद्धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है । इस प्रकार संवेग और धर्मश्रद्धा दोनों परस्पराश्रित हैं, दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है । आचार्य समन्तभद्र ने धर्म का लक्षण किया है 'संसारदुःवतः सत्वान यो धरत्युत्तमे सुखे ।' जो प्राणियों को जन्म-मरणादि रूप संसार के दुःख से दूर कर उत्तम सुख --- मोक्ष में धर-- रख देता है, वह (रत्नत्रय रूप) धर्म है । जिस व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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